कोल्हू का बैल
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ज़िन्दगी
रूठकर देह से
भागना चाहती हैं
निविड़ में
खुद से ही प्रश्न करने को
और अक्सर
लौट आती हैं
थककर
चूर-चूर होकर
बंधने को
बिन नाथ और पगहे के
हर शाम को
तबेले में गड़े खूंटे से ,,,,
फिर
अगली सुबह
जुत जाती हैं
खुद ही
कोल्हू का बैल बनकर
आँखों पे पट्टी बांधकर
जिंदगी ....
रामकिशोर उपाध्याय
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