Friday, 24 January 2014

मुक्तक:
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सज गयी है उजड़ी हुई महफ़िल,
जब डूबकर इश्क में हुए गाफ़िल,
अब नहीं खतरा किन्ही मौजों से,
मुझे बुला रहा है मेरा वो साहिल.



गैरों से भी अपनों जैसी बात करता हूँ,
सीधा हूँ और सीधी सच्ची बात करता हूँ,
जमीं को जमीं समझके अक्सर सर नवाता हूँ,
हों मजबूर तो फ़लक पे भी पांव धरता हूँ.

1 comment:

  1. As Beautiful as always..

    I love this line though..
    गैरों से भी अपनों जैसी बात करता हूँ,
    सीधा हूँ और सीधी सच्ची बात करता हूँ,

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