ये लकीरे .........
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धुंधली
पड जाये वो लकीरे
या हो जाया धुंधलका
उस जगह पर
जो बांटती हो
इन्सान को
मुझे वैसे रहना भी नहीं
उस जगह पर
जहाँ उगते हो
नफरत के नागफनी
जहाँ बदल जाता हैं
हो किसी का मजहब
काग़ज के टुकड़े देखकर
जिन्हें हम रद्दी की टोकरी में
फैंकते नहीं पुराना होने पर भी
क्या मजहब
क्या सियासत
सब इन कागज़ों के भरोसे चलते हैं
कुछ को ये चलाते हैं
कुछ इनको चलाते हैं
मुझे भी कुछ ही चाहिए
लुटाने के लिए
उनपर
जो मिटा दे
ये लकीरे ............
रामकिशोर उपाध्याय
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धुंधली
पड जाये वो लकीरे
या हो जाया धुंधलका
उस जगह पर
जो बांटती हो
इन्सान को
मुझे वैसे रहना भी नहीं
उस जगह पर
जहाँ उगते हो
नफरत के नागफनी
जहाँ बदल जाता हैं
हो किसी का मजहब
काग़ज के टुकड़े देखकर
जिन्हें हम रद्दी की टोकरी में
फैंकते नहीं पुराना होने पर भी
क्या मजहब
क्या सियासत
सब इन कागज़ों के भरोसे चलते हैं
कुछ को ये चलाते हैं
कुछ इनको चलाते हैं
मुझे भी कुछ ही चाहिए
लुटाने के लिए
उनपर
जो मिटा दे
ये लकीरे ............
रामकिशोर उपाध्याय
सुन्दर अभिव्यक्ति ..
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