Thursday, 31 October 2013

कुछ अनजाने रिश्ते ...













वो कभी 
मिट्टी में पड़े बीज 
दिखे ही नहीं बरसों तक 
किसी अनजाने रिश्ते की मानिंद  

करते रहे
किसी अनुकूल मौसम की प्रतीक्षा 
पनपे तो
बरगद के पेड़ की तरह
फैले तो
अमरबेल की तरह...

रामकिशोर उपाध्याय 
31.10.2013

Wednesday, 30 October 2013

















आदतें बदलती कहाँ हैं!
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कल रात 
चाँद 
जब निकला
बड़ा धुंधला था
मैंने उसे साबुन से धो दिया
धवल होकर जब चमका
तारे आसमान छोड़ने की जिद करने लगे ..
सूरज रौशनी देने से मना करने लगा
धरती पर हलचल थम सी गयी
क्या करता ?
फिर धुंधला कर दिया ..........

रामकिशोर उपाध्याय

Tuesday, 29 October 2013

आज जब सुबह हुई
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सुबह
जब चिड़िया चहकी
उसके बच्चों ने मुंह खोला
मेरी कलम भी
बिस्तर से उठी
और बोली
आज
मुझे कब दोगे.चुग्गा-दाना ...

रामकिशोर उपाध्याय  


शुभ रात्रि ,,मित्रो !
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के लो आज फिर वही जुर्म हम दोहरा ही देते  हैं,
ख़त उन्हें लिखकर अपने सरहाने रख ही लेते हैं.
उम्मीद हैं सुबह तक खवाबों में मिल ही जायेगा,
तबतक एक अच्छी सी नींद हम भी ले ही लेते हैं.
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रामकिशोर उपाध्याय 
एकल काव्य -पाठ -एक साहित्य मंच के तहत 


शीर्षक अभिव्यक्ति" (उन्वान ) ---- 80

*दीप/दीया/दीपक/दियरा/दिअला/प्रदीप/शमा/चिराग/दिवाली/रौशनी/उजाला/प्रकाश/दीपवाली/प्रकाशपर्व***. पर मेरी एक विनम्र प्रस्तुति .


देहरी पर दीप 
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तम...
हैं बहुत छाया हुआ
पवन भी रूक सी गयी हैं
नभ भी अचंभित सा
अवनि को देख रहा हैं
बहुत से बवंडर हैं
शब्दों में उलझे हुए
पुष्प झुके झुके से है
उल्लू कई बोल रहे
सन्नाटे को चीरकर
तभी कोई विदा हुआ
किसी से पुनः मिलन के लिए
लगा कोई अपनी पोटली दबाये नभ से उतरा
सहसा मुझसे टकराया
खन-खन
की ध्वनि ने कहा
कि वे सोने और चांदी के सिक्के हैं

लक्ष्मी माता !
मैंने उनके चरण छू लिए
आप कहाँ थी?
कबसे ढूढ़ रहा हूँ
यह सब मुझे दे दो,शायद मेरे लिए हैं
मैंने भी कई दीप जलाये दिवाली पर
पूजा भी की हैं ...

यह उसको देती हूँ मैं
जो परिश्रम करे
तुम प्रतीक्षा करो ...
किसी उद्योगशाला की मशीन पर
किसी खेत और खलिहान में
जहाँ स्वेद की बुँदे वातावरण को महका रही हो
यह गंध
मुझे चन्दन की खुशबू से भी अधिक प्रिय हैं
फूल से अधिक मुझे प्रकाशयुक्त विचार पसंद हैं.
तुम श्रम का दीप रखो देहरी पर
आज दिवाली हैं ...
और अंधकार
मुझे जरा भी पसंद नहीं हैं....................

रामकिशोर उपाध्याय
29.10.2013

Friday, 25 October 2013

एक मुक्तक

जंगल उजाड़ हुए शजर सब कट गए,
पत्थर थे लोग पत्थर के घर बन गए.
मिलन हो कैसे तुम खडी हो उस पार,
जो थे जहाज लकड़ी के सब जल गए.

रामकिशोर उपाध्याय