Wednesday, 13 May 2015

ग़ज़ल

एक ग़ज़ल
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२ १ २ , १ २ २ , २ २ १ , २ २
प्यार का नया मौसम फ़र्द क्यों है,
मिल गया सहारा,फिर दर्द क्यों है|
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आ गयी नई खुशबू जब चमन में,
बागबाँ हुआ फिर वो जर्द क्यों है |
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छट गयी फलक से जब धुंध सारी,
इन आइनों पर फिर गर्द क्यों है |
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हुस्न खुद हुआ जब बेजार दिल से,
इश्क का ठिकाना फिर खुर्द क्यों है |
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जल रहे मकानों में दीप जगमग ,
रात फिर उजालों की सर्द क्यों है|
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थाम क्यों नहीं लेते हाथ बढ़कर,
प्रेम की छुहन में फिर बर्द क्यों है |
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{ फ़र्द =एकाकी,ख़ुर्द =छुद्र/छोटा, बर्द= ठंड )
रामकिशोर उपाध्याय

एक फटा पैबंद --------------


न मैं नट हूँ ,न विदूषक ही 
जादू मुझे करना आता ही नही 
भूल जाता हूँ मन्त्र पूजा में
ध्यान 
लगता नहीं योग में 
रहता हूँ 
हर समय वियोग में 
व्यवहार में फिसड्डी कहते है सयाने लोग 
यह संसार मिला हैं मुझे उधार में 
हाँ , कुछ बरस का पट्टा 
जिसे किसी पटवारी ने 
चढ़ा दिया हो मेरे नाम लेकर मालमत्ता 
और उनकी प्रीत 
दुःख के इस असीम नाटक में एक सुखद संयोग 
कई लोग उपयोग करते है जैसे हो कोई पैबंद 
गोल-गोल परिधि में बंद 
किसी सुईं के नीचे 
छिदता,बिंधता 
और एक जगह जुड़ जाता 
फेविकोल के जोड़ की तरह ..
वैसे किसे अच्छा लगता है 
बने रहना एक पैबंद ...
कभी विद्रोह करके छूट भी जाता हूँ 
मैं सब जानता हूँ ...
तभी तो शायद मैं हूँ 
खुद अपने उघड़े नंगेपन पर 
चुपचाप अलग-थलग सा दिखता 
कभी नया सा पैबंद ...
तो कभी फटा सा पैबंद ....|
*
रामकिशोर उपाध्याय


हकीकत को मत नकार दो

हकीकत को मत नकार दो ....
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सपनों के सम्मुख 
हकीकत को मत नकार दो 
जीत के सम्मुख 
हार को मत दुत्कार दो 
प्रीत के सम्मुख 
विरह को मत अधिकार दो 
लक्ष्य के सम्मुख 
सफ़र को मत बिसार दो 
मर्म के सम्मुख 
पाखंड को मत विस्तार दो 
और 
धर्म के सम्मुख 
देश को मत प्रहार दो 
और फिर 
कोई संग चले न चले 
कोई राह दिखे न दिखे 
तुझको तो चलना ही होगा 
कई मीलों जाना होगा
कभी नन्हे क़दमों से 
कहीं लम्बे डगभर के 
होगी जहाँ एक सुबह नभ पर 
कुछ खट्टी और कुछ जैसी शक्कर 
मगर 
आशा के सम्मुख 
निराशा को मत स्वीकार दो... 
सपनों के सम्मुख 
हकीकत को मत नकार दो ....
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रामकिशोर उपाध्याय


Monday, 11 May 2015

चाँद और लहरें

चाँद और लहरें
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जैसे -जैसे बढ़ रहा था
लहरों का शोर
उठ रहा था नाविक का
दर्द भी जोर जोर
साहिल का खामोश समर्थन
बना रहा है लहरों को उद्दंड
लडखडाती थी कश्ती
पर होंसले को थामे था वह प्रचंड
लड़ रहा है लड़ाई
समंदर के उस पार जाने की
बेशक उसकी नांव कई बार डगमगाई
नाविक ने सुना था
लहरें चाँद से मुहब्बत करती है
और उसके बाहुपाश में ही
अपनी गति को नियंत्रित करती है
बस नाविक देने लगा आवाज
चाँद को
और करने लगा प्रतीक्षा
कि कब बदले चाँद का मिज़ाज .....
गम के उठते घने
उस तूफ़ान में .....|
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रामकिशोर उपाध्याय