फिर वही तो ऐसा क्यों ?
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समय का चक्र
चल रहा है वही अपनी गति से
वही पृथ्वी
वही नभ के इर्दगिर्द
अवनि
पर वैसे ही जन्म दे रही जननी
परिंदे भर रहे हैं वही उड़ान क्षितिज तक
सागर में वही चक्र ज्वार भाटे का
वही उदात्त लहरे
वही रोकते किनारे
चन्द्र वही
उसकी चाहत में मग्न वही चकोर
वही सोलह कलाएं
वही अमावस
अप्रतिम पूर्णिमा वही
वही निर्झर झरना
वही नील अम्बु
फिर ये क्यूँ हैं भूचाल
इन हवाओं में
क्यूँ है भावनाओं में उबाल
ये नन्हे तारे
क्यूँ हैं गर्दिश के मारे
मेरे इर्दगिर्द सारे
क्या अब नहीं बन रही
कोई आकाश गंगा
क्या सृजन नहीं हो रहा
किसी नूतन अन्तरिक्ष का
क्या नए सागर नहीं बन रहे हैं
लगता हैं ----
मुझे ही कुछ करना पड़ेगा
करूँगा निर्माण विश्वास के अन्तरिक्ष का
जिसमे सी दूंगा
इन गर्दिश में पड़े इन तारों को
नयी धरती का
जिसको अपने धैर्य से सजा दूंगा
निराशा से उबार
करूँ एक आशा-संचार
फिर लूँ मैं क्यूँ किसी से अपनी जिंदगी उधार
बस पा जाऊं जीवन का ठोस आधार ................
RAMKISHORE UPADHYAY
9-7-2013