(MAIN*HUN*NA) में पेश ये ग़ज़ल
दुनिया को अभी ठीक से जाना भी नही हैं
यहाँ इंसान को अभी पहचाना भी नहीं हैं
किसी को तलाशते आये है अभी शहर में
रहे किधर यहाँ कोई ठिकाना भी नहीं हैं
न देखा हमने सहरा और न गुलिस्तां को
कैसी है तपन और खुशबू,जाना भी नहीं हैं
पर्वत सी हो ऊंचाई मेरे उम्दा ख्याल की
दर्द कैसे भरदूँ जब चुभा कांटा भी नहीं हैं
हो तो गये है शामिल तेरी इस महफ़िल में
सलीका और अदब अभी जाना भी नहीं हैं
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