जिस्म पे जख्म न थे पर हर शाख रोई दहाड़कर
गहरी जड़ें हिलने लगी और कलियां मुरझा गयी
जब वो शाख पे आबाद हिस्सा जाने लगा उड़कर
वो बाशिंदे वो चीटियाँ जो बैठा करती थी उसपर
गुमसुम हो गए यह कहकर अलविदा ऐ रहबर
रात ओंस की चांदी और वो सुबह सोने की लकीरें
अब नहीं होंगी रोशन उड़ गयी हवा में यह सोचकर
जाने के बाद फिर नहीं होगा आना पक्का है उसूल
वक़्त का एक ही लम्हा रख देता है सबको तोड़कर
राम किशोर उपाध्याय
शास्त्री जी , आपका हृद्य से आभार
ReplyDelete