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आज मैं तप लिया
इस जीवन के लोहे की भट्टी में ...
मगर मेरे पिघलने से
मात्र आठ दस कीले ही बनी
यह चिंता का नहीं
चिंतन का विषय हैं ....
यह भी भ्रम नहीं है .......
कि मैं कीले बनकर किसी घर की छत में जड़ा तो गया
किसी के आशियाने की शक्ति तो बना
और यह भी कोई गर्व नहीं कि अब उन आँखों से
टप -टप पानी तो नही टपकेगा
जो हमेशा से चिंतित थी कि अचानक बरसात से
उनकी कुठार का अनाज गीला न हो जाए
वास्तव में देह की ये कीले कुछ अधिक ही चुभ रही थी
मेरी आत्मा के भीतर
यह तो मात्र निरतिः का निरसन है.....
शेष कुछ नहीं हैं........
रामकिशोर उपाध्याय