Friday, 28 October 2011

' छोटी-छोटी कवितायेँ '



 सफलता 
उन सभी को चुभती हैं 
जो रहे सदैव 
असफल .

दूसरों की राह में अक्सर  
लोग पत्थर ही नहीं  फैंकते 
पहाड़ भी खड़े करते हैं.
जो पत्थर तोड़ने में रहे सदैव 
असमर्थ.

काँटों   
के साथ  कैसे  जीते हैं.
यह गुलाब से अधिक कोई नहीं जानता.  

' कामयाब '



साहिल शांत 
लहरे अनंत 
---टकराहट प्रतिपल बढती ही जाये 
फिर भी साहिल हटता ही नहीं
----बना होगा फौलाद का 
सोचा दूर के मुसाफिर ने 
परन्तु 
निकट आकर देखा तो थे 
---रेत के कुछ कण 
कितने बिखरे-बिखरे 
कितने अलग-अलग 
पर 
--- मकसद में पूरे कामयाब 


.  कविता का जन्म मद्रास ( अब चेन्नई) के मरीना बीच पर वर्ष १९८६ में हुआ. कादम्बिनी में भी प्रकाशित हुई                     

'ड्राईंगरूम के कोने '



             हाशियें पर खिसके लोगों को 
             अब बोंजाई की तरह उगाने लगे हैं ---
             उनको कांट-छांट कर 
             उनको जमीन से उखाड़कर 
             ड्राईंगरूम के कोने में बड़ी ही खूबसूरती से सजाने लगे हैं.--- 
             और प्रकृति- प्रेमी का पदक पहनकर 
             सत्ता-लक्ष्मी के भवन में प्रतिष्ठित हो उठते हैं.

             आज का आदमी--

             आदर्शो की लम्बी परछाई के तले
             कथनी और करनी में विरोधाभास के बोझ के तले 
             कितना पिग्मी हो चला हैं 
             कि यथार्थ के आईने  में 
             अपनी कुरूपता छिपाने  के लिए 
             शतुरमुर्ग की तरह 
             जमीन में सर छिपाने   लगा हैं. ---





' कैक्टस' 

वन में खिल रहा था पलाश
बाग़ में प्रमुदित था गेंदा, गुलाब

क्यूँकि-  
जल वृष्टि थी भरी-पूरी 
फिर पास में थी कल-कल करती नदी
धरा की प्रकृति थी भुर-भुरी
माली की खुरपी  थी  भी प्यारी 
खाद और कीटनाशक की थी भरमारी 

पर -

जोर की गर्मी  में आदित्य की टेढ़ी 
एक ही भ्रकुटी के समक्ष कालकलवित हो गए 
जो थे गेंदा और गुलाब
पलाश भी हो गया बे-आब 

परन्तु

वन में फूलता रहा तो 
सिर्फ एक फूल
कैक्टस-----

 कैक्टस के खिले फूलों के देखकर मुझे लगा की जीवन और वन दोनों समरूप हैं. अगर हम कैक्टस की तरह जिए तो कम सुविधाओं में प्रसन्न रह सकते हैं. आपकी प्रतिक्रिया अपेक्षित हैं.

Thursday, 27 October 2011

दीवाली


दीवाली 

  कार्तिक अमावस की रात में 
राजा रामचंद्र  के स्वागत में

पूरी ही प्रजा  प्रसन्न हैं
सुराज अब आसन्न हैं

अब रामजी करेंगे राज
पूरण होंगे सबके काज

यक्षों के राजा कुबेर 
लगे घर धन के ढेर 

 मंथन से आई माँ महालक्ष्मी   
अर्थ,धान्य की   होगी कमी 

गणेश जी की  करेंगे पूजा 
दूर्वा के अंकुर मिश्री कुजा 

कमल के फूल श्रद्धा समर्पण 
धूप दीप नैवेद्य  मधु  का अर्पण  

होगी देवी प्रसन्न 
पुलकित  तनमन

गौतम जी आए हैं
ज्ञान सभी लाये हैं 

शिर्डी में साईं  के संग 
श्रद्धा सबुरी की उमंग

बाटेंगे अब खील बताशे 
बाजेंगे अब ढोल ताशे 

मन में फूटेंगे लड्डू
खुश है राजू गुड्डू

ले दीपो के थाली
आई शुभ दीवाली !
आई शुभ दीवाली !

२६.१०.२०११ 

Friday, 21 October 2011

'दिवास्वप्न'

'दिवास्वप्न'
पथरा गई थी
उसकी दो आंखे देखते-देखते ----
साकार होने का क्षण
उस दिवास्वप्न को
जो दिया था उसे व्यवस्था ने --
आश्वासनों का अक्षय -पात्र मिला था सभी से 
जब भी वह रेंगता था उसे पाने को
बिना सींग वाले राक्षस उसे त्राण देने लगते थे 
और वह प्रयास करने लगता था मुक्त होने का
उसकी सूखी  हड्डियाँ 
भक्षण करते-करते हो गयी थी
जरा सख्त --
दर्द करने लगते थे  जबड़े उसके
आश्वासनों का व्यंजन चबाते-चबाते
सुपोषण का वह
शिकार बन गया था.
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' अपने-अपने यथार्थ '

'    अपने-अपने यथार्थ  '

बाबा ! सितारे जमीं पर लाऊंगा 
चाँद को खिलौना बनाऊंगा
आयेंगी जब ठण्ड 
सूरज पर हाथ सकेंगे------
बाबा! आस्मां की तख्ती पर
देवदार की लम्बी कलम से 
नदी के नीले जल की सियाही से
जीवन -संघर्ष की गाथा लिखूंगा  ------
बेटा! देखते हो खूंटी पर टंगा वह मैला कुरता
उसकी बाजु पर  लगी वो कई पैबंद
मेरे पायजामे पर पड़ी बेतरतीब सिलवटे
झुर्रियो से ग्लोब बने मेरे चेहरे को
भीतर धंसी ये दो आँखे 
पहचान कर लो अपने यथार्थ की ---------------
मै थोड़े तिनके एकत्र कर लूँ
तुम आग मांग लाओ पड़ोस से
आज हम आलू  भूनेंगे 
जो मैंने चुराए है खुदे खेत से कल ही रात  
और अपने हाथ सकेंगे------------------------

20.10.2011

Wednesday, 19 October 2011

'आकाश को मुस्कराते देखा '

प्रिय मित्रो ,

आपके लिए एक रचना प्रस्तुत हैं. आपकी टिप्पणी अपेक्षित है. 

'आकाश  को मुस्कराते  देखा '

कल
 छत    से  आकाश  को
धरा  के   लिए   मुस्कराते  देखा .

बादलों  से परियों   को
प्रेम   के   लिए   उतरते  देखा .

हवा  से जुगनुओं  को
तैरने  के  लिए   बतयाते  देखा  .

तारों  से  चाँद  को
रौशनी  के  लिए  उलझते  देखा  .

कहीं  -
मैं    देखता  ही  रहूँ ,
डराने के लिए  बिजली  को कड़कते  देखा  .

कल
छत  से  आकाश  को
धरा  के  लिए  मुस्कराते  देखा .

फूलों   में  चांदनी  को
छिपने  के  लिए  बिखरते  देखा  .

पेड़ो  में  चाँद  को
छूने  के  लिए   लपकते  देखा .

शाखों  में  खगों  को
जीने   के  लिए  सिमटते  देखा .

पत्तों  में  नमी  को
मिटने  के  लिए  लुढ़कते  देखा .

कहीं   
मैं  जागता ही     रहूँ
भोर  में  किरणों  को रचने   के  लिए  विचरते  देखा.

 कल
 छत    से  आकाश  को
धरा  के   लिए   मुस्कराते  देखा .

२०.१०.२०११