Tuesday, 16 December 2014

कुछ न कहना



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बादलों से
कुछ न कहों आजकल
धूप लील जाते है.....
मेरे हिस्से की
*
धूप से..............
और बस धूप से ही
कुछ न कुछ कहो आजकल
वो ही एक नर्म बिस्तर देती हैं
मेरे सपनों को
मेरी सफ़ेद चांदनी सी यादों को
जो रात को रख दी जाती है
सुनहरी चादर में लपेटकर
और करती है प्रतीक्षा
भोर होने तक ....
***
रामकिशोर उपाध्याय

लक्ष्य से पहले

लक्ष्य से पहले
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चक्र
समय का चलता है
शाश्वत है ...
दक्षिणमुखी गति में
अनंत कष्टकारी होता है .....
परन्तु कहते हैं
मनुज
मंदिर की परिक्रमा
अगर दक्षिणमुखी करे
तभी वांछित फल मिलता है .....फल और गति
पल और मति
और
बल और युति में भी एक शाश्वत सम्बन्ध है ....
जैसे मनुज के पाँव होना
चलने के लिए
कर्म-पथ पर
न कि थककर रुकने के लिए ............
लक्ष्य से पहले ..|
***
रामकिशोर उपाध्याय

Saturday, 29 November 2014

रेत में तैरते....ग़ज़ल


{बहर =२  १ २, २ १ २,२ १ २ ,२ १ २, २ २ २}
पदांत = देखे 
समान्त = अर 
** 
रेत में तैरते बरफ के कुछ समन्दर देखे,
चाँद को घूरते ख्वाब के कुछ बवन्डर देखे |
**
जीत होती रहे यह सदा संभव हुआ हैं कब,
धूल को चाटते एकदिन सब सिकंदर देखे |
**
जो नचाते कभी अंगुली पर सभी शेरों को   
आजकल तो भिक्षा मांगते वो कलंदर देखे |      
**
पुन्य का लोभ है दान भी सब दिखावा है ये,
ढोंग पर चल रहे मस्जिदें और मन्दर देखे |
**
मजलिशें रो रही गालिबों और मीरों को अब,
शायरों के भेष में नये आज बन्दर देखे | 
**
न्याय शासन खड़े सर झुकाके सभी अर्थ समक्ष,
मौज करते कभी चोर भी जेल अन्दर देखे |
**
माघ के माह में फलक पर आम ये मंजर है,
ऊन  की चादर खरीदते सूर्य चन्दर देखे |
**
रामकिशोर उपाध्याय 

 





Thursday, 20 November 2014

ग़ज़ल..दर्द भरी आहों से..

एक गीतिका
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2 2 2 2 2 2 2 2 2 2 2
दर्द भरी आहों से शोर नही निकला,
अबतक यादों से वो दौर नहीं निकला |
*
इस बस्ती में रहती है तो बस नफरत,
पर हर इंसा आदमखोर नही निकला |
*
इस दुनियां की अपनी ही रीत निराली,
साधु जिसे हम समझे चोर वही निकला |
*
खूब उडाते हैं दावत बाहर बेटे ,
पर माँ की खातिर एक कौर नही निकला
**
कहते है पोलिटिशियन सभी इक जैसे,
कम से कम वो रिश्वतखोर नही निकला |
***
**
ramkishor upadhyay
20.11.2014 

ग़ज़ल

एक गीतिका *************
"""
खिल गए फूल से याद इक आ गई,
शहद की बूंद सी जीभ पर छा गई |
*
नैन भी शोख थे,बात भी मदभरी,
प्यार के मांगने की अदा भा गई |
*
चाल में मस्तियां,गात में बिजलियाँ,
छिन गयी चैन,वो गज़ब सा ढा गई |
*
फूल से वह उठी,चाँद पर जा खिली,
ख्वाब की बात जैसे जमीं पा गई|
*
टूटने से बची वो सुमन की कली,
भ्रमर सेना कहीं से तभी आ गई |
**
रामकिशोर उपाध्याय
17.11.2014

Friday, 24 October 2014

एक गीतिका

जितना भरता उतना बह जाता,
मन का घट रीता ही रह जाता |
*
गिनकर देता सांसो को फिर भी,
बिन पूछे ही लेकर वह जाता |
*
वह पत्थर सी काया पाकर भी ,
अक्सर ही फूलों से दह जाता |
*
आँखों में आसूं ना दिख जाये ,
गम उसके भीतर ही बह जाता |
*
हम तो सच को सच बतला देंगे,
उसका क्या वह झूठा कह जाता |
*

रामकिशोर उपाध्याय 
This Diwali - A Virtual Fight
********************************
The words began to fight
With me on this Diwali
Some wanted Chinese crackers
Some were for Indian Anaars
Some were up for imported LED
Some were for potters' bread
Soon they began to delve deep
When they saw people on pavement
Fighting for a dried crumb
And their children's contentment
Playing with fired bomb
Even after having burnt their fingers
Their habbit knew only joy and no angers
Words were soon with folded hand before deity
Just asking for enternal bliss and gaiety
For those who have been left high and dry
And having no laugh ,but cry
Their face lit when they see loaf of bread
And not like when affluent children fight for crackers' thread
My words leaving prayer halfway began playing with slums' children
Very quietly ...quickly .for fun
And muddied thier clothes in the dirt and dust
Just away from pomp, power and lust..........
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Ramkishore Upadhyay
L

Wednesday, 8 October 2014




 गीतिका
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मौन को मिल गयीं शब्द की डोलियाँ l 
बोलने लग गयीं आप ही पोथियाँ l 
*
हार में जीत है जीत में हार है,
तू सदा जीत ले प्रीत की बाजियां |
*
मीत की आँख में नीर की धार हो,
पोंछ दे जानके पीर की ग्रंथियां |
*
तोड़ दे बंधनों की बेड़ियाँ तू सभी,
आ अभी बांध ले प्रेम की घंटियां |
*
आस की लौ जगी आज मेरे लिए,
शीत की रात में आग की तीलियाँ |
*
रामकिशोर उपाध्याय

Friday, 22 August 2014

एक गीतिका
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नाम बड़े और दर्शन छोटे,व्याप्त यही परिभाषा,
ये दुनिया ऐसे ही चलती,,,बस तू देख तमाशा |
*
कागा हुए कोयल और घर में श्वान बने है शेर,
कभी युद्ध मध्य कायर बोले है वीरोचित भाषा|
*
कल जो सच था आज वही है झूंठ जगत में,
वासना करे शांत अब तो धर्म की जिज्ञासा |
*
कुत्ता खाए मालपुआ और आदमी सोये भूखा,
अमीर चखे सत्तामृत और गरीब सहे हताशा |
*
ज्ञानी भये अज्ञानी और अज्ञानी बने है विज्ञानी,
चाटुकार करे रोज सिंहासन की तीव्र अभिलाषा
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रामकिशोर उपाध्याय

Tuesday, 19 August 2014

समय











अंतिम घड़ी में
पिता ने पुत्र को निकट बुलाया
एक पुड़िया देते हुए कहा
पुत्र, इसे संभालकर रखना
यह हमारे पूर्वजों की निशानी है
पुत्र ने जेब में रखना चाहा
पिता ने सोचा कि वह पुत्र को टोके
पुत्र एक बार इसे खोलकर तो देखे ?
पुत्र अंतिम संस्कार तक रुका
फिर खोलकर देखा
पुड़िया तो खाली है
परन्तु उसमे तीन अक्षर लिखे थे
जिनमे पूरा ब्रह्माण्ड समाया
अनमोल अक्षर थे
'समय'  
हां समय ......|
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रामकिशोर उपाध्याय



Mera avyakta: मुंडेर पर ....

Mera avyakta: मुंडेर पर ....: मन पुलकित हो उठा लगा के वीणा के सोये तार जग गए जब उसने कहा तुम्हे पहले भी कहीं देखा है पहली ही मुलाकात में उस जगह घने पेड़ ...

मुंडेर पर ....













मन पुलकित हो उठा
लगा के वीणा के सोये तार जग गए
जब उसने कहा
तुम्हे पहले भी कहीं देखा है
पहली ही मुलाकात में
उस जगह घने पेड़ थे
छाँव थी घनी
पीपल की चंचल  पत्तियों से
सूरज लुकछिपकर
अपने दृग फाड़े देख रहा था .....
यह दृश्य ...अपूर्व
पर वह बोलती ही जा रही थी
आकाश सिंदूरी हो चला
पुरुष ने सोचा के योषा की आँखों में
दिवस ढलने का प्रभाव परिलक्षित हो रहा है
योषा की आँखों में लाल डोरे तैरने लगे थे
वह कहने लगी
जाने से पूर्व कुछ कहोगे नहीं
क्या कहूँ ?
जब -जब तुम दर्पण देखोगी अपलक
एक छवि निर्बाध वार्ता करेगी
और होगा एक निवेदन
जिसे शब्दों में व्यक्त करना कठिन है
और तुम खुद ही कह उठोगी
के ये निगोड़ी आंखे बहुत बोलती है क्यों ?
परिंदों अपने घोंसले को लौटने लगे
और शोर बढ़ने लगा
मुंडेर से उतरकर दो साए आंगन की ओर बढ़ने लगे थे .....
**
रामकिशोर उपाध्याय 

Friday, 11 July 2014

निष्क्रिय ? 
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घर / बाहर के 
दुश्मनों से लड़ना सीख लिया 
अब .....
न तलवार का वार 
न जुबानी जंग
न अश्कों का संग
इर्दगिर्द मचे युगीन
अस्त्रविहीन युद्ध के कोलाहल में
बस
मौन रहता हूँ ....
निष्क्रिय ????
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रामकिशोर उपाध्याय
प्रेम का अटूट बंधन 
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ख़त लिखे 
और रोज लिखे तुमको -----
ख़त लिखने के भाव मात्र से 
तुम्हारी देह की गंध 
मन मस्तिष्क को घेर लेती/ करती सम्मोहित
जिससे भूल जाता ---ख़त पोस्ट करना .........
जबकि तुम सोचती हो
कि कुछ ढीले पड़ गए बंधन
प्रिये ! शरीर के तन्तु शिथिल हो सकते
किन्तु प्रेम - बंधन तो.......?
***
रामकिशोर उपाध्याय

Stretch the String ..
--------------------------.
If you love me 
You can't resist to smile 
Even when I am acting stupid 
So then whats to say to the cupid ?
Do one thing
Stretch the string....................
***
Ramkishore Upadhyay
कहीं कोई हवा चले ...
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इन 
गुंचों को यूँ ही महकने दे
ज़ीस्त में 
कुछ देर और ....
न जाने 
कब कोई हवा 
बदरंग कर दे 
इस पुरकशिश बाद-ए-सबा को |
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रामकिशोर उपाध्याय

बस तुम

बस तुम 
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सरल सा 
चेहरा 
उलझती लटों पर 
झूलते पानी के मोती 
होठों पे
ठहरी तबस्सुम
आँखों से
टपकता नूर
बदन से फूटती
मादक गंध
रात के सन्नाटें में गिरती
वो शबनम
चटकती कलियों से
बहकती खुशबू
थी जिनसे आबाद जिंदगी कल भी
और है आज भी
वो तुम ही तो हो ....
बस तुम .............|
-
रामकिशोर उपाध्याय

Wednesday, 2 July 2014

कंटकों में टंगी आराधना 
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मरुस्थल ... 
विस्तृत हो गया सामने 
एक लम्बा और उबड़ खाबड़ सा
शायद किसी ने प्रेम में आँखों को विरत कर दिया होगा 
इच्छाओं का जल से ...
और उगे गए सिर्फ खेजड़ी और केक्टस
नुकीले तनों पर खिले फूल
जैसे भग्न ह्रदय के अनुभाव
कभी दिखाई पड़ते है निशान ऊंट के पाँव के भी
जैसे कोई छोड़ गया स्मृतियां
हवा के एक झोंके से विलीन होने के लिए
शायद यह सोचकर
कि प्रेमपथ का कोई अनुसरण न करे
परन्तु वह पथिक जरुर जानता होगा
कि इस युग में न मिलती है हीर
न उसकी जैसी तकदीर
न आयेगा कोई राँझा
जो करेगा हीर का गम साझा
न होगे महिवाल
जो हो इश्क से लबरेज और जज्बात से मालामाल
न सोहनी
जैसी बनेगी कोई मोहिनी
*
मरुस्थल ..
बस है एक वक्षस्थल
पीड़ा और वेदना का
जो सतत ढूंढ रहा है कोमल संवेदना ...
जो कर रहा कंटकों में टंगा अपनी आराधना ....

और मैं शायद इनके बीच होता हूँ ********************************



अहसास ....
कभी घर में लगी अलगनी पर लटके होते है 
बेतरतीब
और कभी इस्त्री किये अलमारी में हेंगर पर होते हैं
सुसज्जित
परन्तु कैसे समझाऊँ ?
उन्हें शायद ...
मेरी ठेठ देहातीपन
या फिर मेरी नगरीय भद्रता
दोनों ही स्थितियां रुचिकर नहीं लगती
और मैं शायद इनके बीच होता हूँ
--
रामकिशोर उपाध्याय

Thursday, 26 June 2014

वो आ ही जाती !!!
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वो कभी ...
गली से आती
नुक्कड़ से आती
गति से आती
सड़क से आती
हवा से आती
तूफ़ान से आती
गर्दाब से आती
सिसकी से आती
चुभन से आती
खुशबू से आती
तंज से आती
रंज से आती
वस्ल से आती
हिज्र से आती
***
कभी -----
वफ़ा से निकलती
जफ़ा से निकलती
दर्द से निकलती
दश्त से निकलती
तन्हाई से निकलती
आशनाई से निकलती
तीरगी से निकलती
उजालों से निकलती
जुल्फ से निकलती
*
न जाने....
कहाँ कहाँ से आती
कहाँ कहाँ से निकलती
आती ही रहती
निकलती ही रहती
मेरे सूने से कैनवास पर कुछ रंग भरती
कुछ नगमे सुनाती
कुछ गुनगुनाती
कभी कभी मुझको रुलाती
कहीं कहीं हंसा भी जाती
बिन पूछे मेरी कलम को उठाकर चल पड़ती
और कागज़ पर आकार ले जाती
वो मेरी कविता
वो तुम्हारी कविता
वो हमसब की कविता
गरीब मजदूर की कविता
मजबूर की कविता
आम आदमी की कविता .....
***
रामकिशोर उपाध्याय

लौ लगी
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दिल में लौ लगी
थोड़ा घी डालकर
दीये में
देव के सामने रख दिया
और रौ आने से पहले 

लौ बुझने न पाए
दीये को ज़िगर में छुपा लिया ...
***
रामकिशोर उपाध्याय
धरती पे टहलते चाँद-तारे 
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कुछ कहीं 
गरम से अहसासों की धूप 
और किसी का 
चले आना यूँ ही नंगे पाँव 
बेतरतीब ख्यालों
का लगा हुआ एक शामियाना
और जिंदगी का
लगा देना किसी पे सबसे बड़ा दांव
**
काश यह संभव होता तो ....

आज ...
सुराख़ होते आसमान में सारे
और धरती पे टहलते चाँद-तारे
**
रामकिशोर उपाध्याय

Sunday, 22 June 2014


वह एक झील 


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वो एक दरिया के मानिंद 
बहती रही ...
कभी किनारे-किनारे 
कभी मझधारे
कभी पत्थरों से टकराती
तो पिघलते ग्लेशियर से गले लगकर मिलती
कश्ती को रास्ता देती
तो कभी मल्लाह की गलती से उलटती कश्ती को देख हंसती
बस एक ही मंजिल थी उसकी
अपने समंदर से निरन्तर एकाकार होना
अचानक उसकी चाल में
एक तेज मोड़ आया
वह चढ़ने लगी पहाड़ की ओर
उसे देख दरख्त हंसने लगे
जंगली जानवर चिल्लाने लगे
वह क्या करती
सामने खड़ी थी नियति
वह बस ठहर गयी पहाड़ की एक चोटी पर
समंदर से कह दिया कि आना है मुश्किल
एक शांत झरना इधर उधर से गिरता
जल लाकर रोज छोड़ने लगा
वह मीठे पानी की झील में तब्दील हो गयी |

--
रामकिशोर उपाध्याय 

Saturday, 21 June 2014

कैंची और सुईं 
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सच 
अगर काटता आदमी को 
किनारे से या बीचों बीच किसी सोने की कैंची से भी 
उस सच की कैंची की धातु को  
अपनी सांसों की भट्टी में पिघलाकर राख कर देना चाहिए .....
*
झूंठ 
अगर सी देता है फ़ासले दिलों के 
किसी लोहे की सुईं को चुभाकर आदमी के जिस्म में भी 
उस  झूंठ की सुईं को ...
नगीना समझकर अपने सर की टोपी में खोंस लेना चाहिए  ...
*****
रामकिशोर उपाध्याय

Sunday, 15 June 2014

एक नया लुक
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जिंदगी वही 
जिंदगी की किताब वही
पुराने पन्ने वक्त की मार खाकर
बस फटने से लगते है ...
अगर किताब को न संभाले हम कहीं
ऊपर का आवरण
पुराने पन्ने के ऊपर बस थम जाए वही
पर हर रोज पुरानी जिंदगी जीने का नया सपना हो सही
फिर जिंदगी का कोई नया बुत तामीर मैं क्यों करूँगा
उस पुराने बुत में रोज नए रंग भरूँगा
और उसको अपनी किताब के
पहले पन्ने पर अपने सुहाने अहसासों से चस्पा कर दूंगा ...
और जिंदगी की किताब को मिल जायेगा
नया एक लुक ....
***
रामकिशोर उपाध्याय
अकेला शिखर (Lonely Peak)
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उसने स्वप्न था देखा 
दिन के उजाले में 
और एक दिन बड़े वृक्ष के सशक्त तने को 
अपने हाथों के तंतुओं से लिपटकर
बर्फ़ से ढके शिखर पर गिरती प्रातःकालीन रश्मियों की आभा से
सबकी आँखे चुन्धियाने लगा
कितना भ्रमित है वृक्ष अब मेरी नीचे उतरने की राह देखता है
उसको एक समझाया था
कि लता शिखर पर आकर वृक्ष का साथ छोड़ देती है
जैसे किसी सीढ़ी को गिरा दे
छत पर पहुचकर
बर्फीले शिखर पर घास नही उगती
और अब सर्दी का मौसम रहेगा कुछ दिन
कोई पर्वतारोही भी निकट नहीं आएगा
मित्र तो शिखर देखकर आते ही नहीं
और मित्रो से मिलने के लिए
बड़े से बड़े शिखर को नीचे जमीन पर उतरना पड़ता है
उनके दस्तरखान पर बैठना पड़ता है
पर्वत की तलहटी में बड़ा शहर आबाद हो गया
दोस्तों में वहां कोई प्रतिस्पर्धा ही नहीं
सभी खुश है जमीन पर जीकर भी
गगन को घूरता
गगन को चुनौती देता
देखता दूर से साकार होता अपना स्वप्न
वह बस अकेला रह गया शिखर पर
और सोचता
कि क्या शिखर पर पहुचने पर व्यक्ति ऐसा ही हो जाता है ?
निपट अकेला .निष्ठुर अकेला
मगर किसके लिए... ?
मगर किसके लिए ....?
*****
रामकिशोर उपाध्याय
तुमने ये पूछा था कभी !!!!!
***************************

तुम्हारे आंसुओं का 
वही अर्थ मेरे लिए 
जैसे तपते सूरज का अचानक तापमान गिर जाना 
और फिर हृदय के खुले कपाटों में
घुसकर ग्लेशियर सा संवेदनहीन हो जाना....
काश ! तुम यह समझ पाते ....|
****
रामकिशोर उपाध्याय
जब चाँद लुट
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छिटक रही थी
आसमान से चांदनी
हम भी सितारों जड़ी झोली फैलाकर आंगन में
टकटकी लगाकर बैठ गए 
कुछ क्षणों के बाद जब उठे तो
सारा बदन पसीने से तरबतर था
झोली खाली रह गयी
हालात बदलते ही सितारे फुर्र से उड़ गए
और लोग वाह-वाह करके
पूरा चाँद ही लूट ले गए
****
रामकिशोर उपाध्याय
कब बरसेगा ?
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अब तो
दिल हुआ जाता है
जेठ का महीना
इस जलती धूप में
न जाने कब से
बह रही है पुरवा हवा विरह की
उड़ गए बदरा सांवरियां
परदेश की गलियों में हो रही है रिमझिम
बंजर धरती का आंचल
अब नागफनी के पौधों को भी तरसता है
अक्षत दूर्वा बनकर
मैं कब तक आसमानी कहर सहती रहूंगी
सुना है इस बरस मानसून का मौसम लम्बा नहीं होगा
परन्तु पूर्वाग्रहों की छतरी
मै बिलकुल नहीं खोलूंगी इस बार
भीगकर अन्दर तक समा लेना चाहती हूँ बरसात
राम जाने अहसासों की
नन्ही नन्ही फुहारें लिए
प्रेम का सावन कब बरसेगा
मेरी नगरिया में ......?
****
रामकिशोर उपाध्याय

Thursday, 5 June 2014

के कभी हमें पैबन्द लगी कमीज पहनने से गुरेज था,
अब ख़ुशी की चिंदियों से सिली जिंदगी को सहेजते हैं|
रामकिशोर उपाध्याय
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