Tuesday, 30 July 2013

मगर बहाना नहीं मिला


सजदे  कर लिए है 
मगर ठिकाना नहीं मिला (१)

होठों पे तबस्सुम हैं
मगर सहारा नहीं मिला (२)

मौज़ो से उलझते हैं 
मगर किनारा नहीं मिला (३)

दिल तो लुटा बैठे हैं
मगर इशारा नहीं मिला (४)

आंखे तो चुरा  ली हैं 
मगर शरारा नही मिला (५) 

जीने की तमन्ना हैं
मगर बहाना नहीं मिला (६)

रामकिशोर उपाध्याय




आखिर
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आखिर वो इल्तिजा कौन करे
ये दर्द-ए-इश्क बयां कौन करे
हम दिल चाक कराके बैठे  हैं
हर जख्म की दवा  कौन करे
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रामकिशोर उपाध्याय 

Sunday, 28 July 2013

ऐतरेय उपनिषद से :

ॐ आत्मा वा इकमेव एवाग्र आसीत|नान्यत्किंचन मिषत |स ईक्षत लोकान्नुसृजाइति |
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ॐ इस परमात्मा के नाम का उच्चारण करके उपनिषद का आरम्भ करते है. यह जगत प्रकट होने से पूर्व एक मात्र परमात्मा या अन्य कोई चेष्टा करने वाला नहीं था . उस परम पुरुष परमात्मा ने निश्चय किया कि 'मैं प्राणियों के कर्म फल भोगार्थ भिन्न -भिन्न लोको की रचना करूँ '.

मित्रों , चिंतन करे और मार्गदर्शन भी !

रामकिशोर उपाध्याय

ॐ। ।

ताभ्य पुरुषमानयत्ता अब्रुवन सुकृतंवतेति।
पुरुषों वाव सुकृतमं।ता अब्रवीद्यथायतनं प्रविशतेति।।    

तब परमात्मा (गाय और घोड़े के शरीर देवताओं को रहने के लिए बनाने के बाद, जिसे देवताओं ने यथेष्ट नहीं समझा),मनुष्य का शरीर लाये। वे देवता बोले यह बहुत सुन्दर बन गया। सचमुच मनुष्य शरीर परमात्मा की सुन्दर रचना हैं। उन देवताओं से कहा कि तुम लोग अपने- अपने योग्य आश्रयों में प्रविष्ट हो जाओं।    
आपकी सुवास  
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आती -जाती  सांस में विश्वास हैं 
प्रकट विश्वास में प्रभु का वास हैं 
क्यों फिरूं नित नव वन उपवन  
जब दिगदिगंत आपकी सुवास हैं

चक्षुओं में लहराता करुणा सागर
अंक छिपा जाता कष्ट का गागर
नव चेतना  करती मेरा आव्हान 
जब ह्रदय में प्रेम का उच्छ्वास हैं   
  
हर  स्पंदन है  साक्ष्य जीवन का 
हर किरण हैं साक्ष्य अंधकार का
आ रही हैं तरंग सूक्ष्म आधार से  
आनंद दीप जले उर में मिठास हैं 

(c) रामकिशोर उपाध्याय    


Saturday, 27 July 2013


चल बढ़ और देख क्या हैं ये जिंदगी के मसाइल
पहले भी तीन डग में नप चुकी हैं तमाम दुनिया

रामकिशोर उपाध्याय 
मेरी कविता 


जिसे ढूंढता हूँ 
सपनों की परछाई में 

जिसे खोजता हूँ 
सागर को गहराई में 

जिसे पाता  हूँ 
दहकते पलाश की ललाई  में 

जिसे देख बहता हूँ 
कल -कल करती नदी की अंगड़ाई में 

कौन हो तुम ?
कौन हो तुम ?

कही तुम 
झर-झर बहता झरना तो नहीं 

कही तुम 
गुनगुनाता मधुप तो नहीं 

कही तुम 
अधरों पे टिकी कृष्ण की बांसुरी तो नहीं 

कही तुम 
फूल फूल कूदती तितली तो नहीं 

कही तुम 
झूम झूम गाती बयार तो नहीं 

कही तुम 
आशा के उजाले में लिपटी सुबह  तो नहीं 

कही तुम 
मंजिल से भटकी डगर तो  नहीं 

कही तुम 
ग़म में डूबी शाम तो नहीं 

कही तुम 
प्रतीक्षारत पत्नी तो नहीं 

कही तुम 
मनुहार कराती प्रेमिका तो नहीं 

मुझे तो लगता हैं  तुम सब कुछ हों 
जीवन की लय 
आदि और प्रलय
विस्तृत नभ 
अनंत सागर 
दिन-प्रतिदिन का ज्वार 
हरी भरी धरती 
बंजर और परती
अपना दर्द विस्मृत 
परहित विस्तृत 
बिना जूती
जग जंगल में भटकती 
पाने को नवत्राण  
पोषित करता स्वप्राण    
झूलती लता 
फूलती कली 
लहरों पे चल नंगे पांव 
छूता नए पुराने गाँव 
ना बहर का ख्याल 
ना नुक्ते का सवाल 
बस भाव ही मीत 
व्यक्त होता गीत 
ना याद रखता  छंद की मात्रा 
शब्दों की एक अंतहीन यात्रा
बस
शब्दों की एक अंतहीन यात्रा  

(C) रामकिशोर  उपाध्याय 

Friday, 26 July 2013

मेरा ख़त ----------












ख़त ना मिला हो तो भी मिलने का इज़हार करना 
जिगर के खून से लिखा गया हैं बस आता ही होगा  

गहरे रंग से सरोबार हैं मेरे जज़बात के अल्फाज़
पहले पैगाम भेजा हैं दिल भी अब आता ही होगा 

ना जला देना बड़ी मुश्किल से आये  हैं  लब तक 
दिन ढल गया शब-ए-वस्ल बस भी आता ही होगा  
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रामकिशोर उपाध्याय 

Thursday, 25 July 2013

उन्वान ' बोलती तस्वीर '--- मैं ,,,, हूँ ,,,,ना 

बोलती तस्वीर के पीछे  हैं कई राज वो  गहरे   
कोई गम कहे कोई ख़ुशी सब अनाडी जो ठहरे   

वो हमारा ख़त देख डर से लिफाफा ही नहीं खोलते
कोई उन्हें  बता दे कि हमने उनका ही दिल भेजा है 


रामकिशोर उपाध्याय   

Monday, 22 July 2013

चंद  अशआर --------------

दिल बोझिल ग़म से क्या हुआ अश्क बहने  लगे 
ये भी फरेबी दोस्त की तरह हमको दगा देने लगे

एक गुमनाम  पहचान लेकर बज़्म में आया हूँ 
तेरे  टूटते तिलस्म का मंजर जो देखना हैं मुझे

रोज बुनती है मेरी आँखे तुझे लेकर कई सपने  
तेरे चश्म से उन सपनों का अम्बर जो देखना है मुझे 


रामकिशोर उपाध्याय   
गुरु जी 
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वो गए थे कहकर आऊंगा लौटकर  
पथिकों ने  देखा हमें  दीदे फाड़कर 
रात  ढलने लगी और क्या पता था   
चले जायेंगे जीवन सुरभि  बांटकर  

Sunday, 21 July 2013

उत्तर शायद बुद्ध के पास भी नहीं होगा !1!


















समुन्दर से  पूछा
कि कहा तक विस्तार

जहाँ तक
जहां  तक हो तुम्हारी दृष्टि का प्रसार

यह  शर्त
क्या मानव के दुखों के सागर पर भी लागू  होगी  ?

उत्तर शायद बुद्ध के पास भी नहीं होगा  (1)


भंवर में
टूटती किश्ती से पूछा
कि किसने डुबो

नाविक
को  लहरों की विशेषता का अज्ञान
और अकुशलता ने उलझाया

यह शर्त
क्या मानव की विश्वसनीयता पर भी लागू  होगी  ?

उत्तर शायद वेद उपनिषद  के पास भी नहीं होगा           (2)


उदात्त लहरों
से पूछा कि वे  कितनी क्यूँ  अनियंत्रित

चन्द्रमा
की सोलह कलाओं की पूर्णता  अभिव्यक्त

यह शर्त
क्या मानव की भावनाओं  पर  भी लागू  होगी  ?

उत्तर शायद सिगमंड फ्रायड  के पास भी नहीं होगा  (3)

(c)रामकिशोर उपाध्याय



भ्रम

उन्वान ' इबादत' " मैं ,,,,,हूँ,,,,ना'

बुत पे टिकी थी आँखे इबादत में उसकी 
लोग समझे  कोई नींद उडा गयी उसकी 

रामकिशोर उपाध्याय 

Wednesday, 17 July 2013

कोई अपना यूँ ऐसे ही नहीं बनता !















अगर चाहे तू मेरी ख़ुशी को पाना
तो पहले मेरे  दर्द से भीग  जाना

कोई अपना यूँ ऐसे ही नहीं बनता
अना  को पड़ता है छोड़कर  आना  

रामकिशोर उपाध्याय

Tuesday, 16 July 2013

जगत हैं भावों का खेला


जहाँ की भीड़ में हैं अकेला
आपने भी पीछे को धकेला

खरीदने निकला  खुद को 
पास में नहीं पैसा न धेला

आइने का भाव हैं पूछता
चेहरा हैं जैसे उजड़ा मेला

कोई कहता कौन देस के
अक्कल हैं जैसे हो गैला 

न सूरत देखों न  सीरत
जगत हैं भावों का खेला
    
(c)रामकिशोर उपाध्याय


Friendship: 

Who knows better 
than a  rose 
smiles on lips always 
even leaves around in tatter 
with green pricking  thorns 
never abhor them  
and doesn't beseech for softness
even in deep melancholy
keeps on spreading  its fine fragrance
and grandeur of beauty  to holy and unholy  
with same velvet touch 
like mother's couch.

(C) Ramkishore Upadhyay 

युद्ध कर रहा हूँ काल की चाल से


युद्ध
कर रहा हूँ
काल की चाल से

हस्त
में खड़ग नहीं
ढाल भी बेहाल हैं

रथ
समर के मध्य
है खड़ा

तीर
कमान पर चढ़े
शत्रु
अपने वचन से बद्ध

तोप
भी भरी हुयी
बारूद के अम्बार

योद्धा
भी उद्धत
संकेत का इंतजार

शस्त्र
का नहीं अवलंबन
शास्त्र
ही  एक आधार

ऋचाएं
करती रक्त संचार
मौन के शब्द
करते विजय उद्घोष

मौन के शब्द ही 
करते विजय उद्घोष 

राम किशोर उपाध्याय 
16.7.2013


Sunday, 14 July 2013

जीने की शर्त
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वो रोज
एक स्वप्न दिखा रहा था
एक नयी बात सिखा रहा था
खिलोने से खेलने का
खिलोने चलाने का
किताब एक नयी लिख रहा था
कैसे जिन्दा रहा जाये
कैसे जिंदा रखा जाये
भूख मिटाने की
भूख बढाने की

यह सब बताने को
रोज एक नया सबक सीख रहा था
पुरानी किताब को झाड कर साफ़ कर रहा था
गुरु के बताये मार्ग पर उस समय  नहीं
परन्तु अब चल रहा था
वह आल इन वन बन रहा था

लोग मेले लगाते
एक सर्कस में उसे नचाते
कई नयी तमाशा कम्पनी आ रही है

 लोग उसके ज्ञान पर ताली बजा रहे थे
वह भी मुग्ध हो जोश में बढ़ता ही जा रहा था
निर्बाध .........
उसका उत्साह
अमावस के बाद के पखवाड़े के चाँद
की तरह बढ़ रहा था
कई लोगो की रोज़ी चल निकली
कई उम्मीद में पैसा लगाते


लोग उसका प्रयोग कर रहे थे
परन्तु वह सोच रहा था वह सबको प्रयोग कर रहा है
कई तो मुफ्त में ही भोपूं बन बैठे थे
लोग समय आने पर उसको जिबह कर देंगे
राज सिंहासन पर राजपुत्र ही बैठेगा
यही तो सत्ता का अनुशासन है
यही फिर से पालन होगा
देकर राजगद्दी
भारत भूमि को तब अतीत का गौरव  याद आयेगा
वह रह जायेगा सिर्फ भक्त
माँ का एक अनन्य भक्त
 
शायद यही है  देश का मर्ज़ 
इस देश में    जीने की शर्त

राम किशोर उपाध्याय 
मित्रो,

फिल्म अभिनेता प्राण एक प्रेरक थे : एक श्रद्धांजलि 
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कल हिंदी सिनेमा जगत के महान कलाकार प्राण कैलाशवासी हो गए. पुरे देश में अनेक लोग शोक में डूबे होंगे , कुछ नकली आंसू भी बहा रहे होंगे। परन्तु मुझे उन्होंने जो एक ज्ञान दिया, उसे मैंने पल्ले में बांध लिया और अमल आज भी कर रहा हूँ.

घटना उस समय की मैं कालेज का छात्र था 1974-75 में और एक दिन कालेज के लाइब्रेरी में एक फ़िल्मी पत्रिका में प्राण साहब का एक इंटरव्यू पढ़ा. उसमे प्राण जी ने कहा कि जब भी जीवन में सफलता की सीढ़ी चढो अपने से छोटे हर व्यक्ति का सम्मान करते चलो. क्यूंकि शिखर पर अधिक समय कोई समय नहीं ठहर सकता है,आपको उतरना ही होगा। उस समय आपका सम्मान बड़े लोग तो करेंगे नहीं , यही छोटे लोग आपको उन उतरती सीढ़ियों पर आपका सम्मान करते मिलेंगे, यदि आपने उन्हें सम्मान दिया है तो. वह व्यक्ति कितना सम्मान करते थे हर किसी का .

प्राण जी मैं कभी मिला तो नहीं परंतु उनके ये प्रकाशित शब्द मुझे एक असीम प्रेरणा दे गए . न जाने और कितने लोग प्रभावित हुए होंगे नहीं जानता।

प्राण जी आज नहीं हैं, मुझे बड़ा दुःख हुआ. उनके किरदार का सदैव कायल हूँ और रहूँगा . ईश्वर उनकी आत्मा को असीम शांति दे और वे प्रभु चरनों में स्थान पायें . उनको मेरी हर्दिक श्रद्धांजलि


रामकिशोर उपाध्याय


अहदे वफ़ा भी इंसान का एक  फ़र्ज़ हैं
मुकर तो लोग अक्सर जाया करते है

रामकिशोर उपाध्याय 

Saturday, 13 July 2013


उन्वान ' सावन' ' MAI,,,,,HOO,,,,NAA.
____________

छिपाके रखा  महीनों दर्द  अपना बेशुमार
कि मानों आँखों को था सावन का इंतजार

न करना प्यार दिल कहता रहा बार-बार
उनके तीर चल चुके थे, अपने हुए बेकार 

तुम्हारी किस्मत में नहीं लिखा उनका प्यार
तुम हो जेठ की लू और वो  सावन की बहार

सावन आया  बरस गया
मन पानी को तरस गया 



रामकिशोर उपाध्याय
           

Friday, 12 July 2013

शुभ रात्रि मित्रो !

उनसे मैं क्या शिकायत करता
बुत से मैं  क्या  इबादत करता

रामकिशोर उपाध्याय   
हमें याद हैं

इशारा मिला
तो जाने क्या ख्वाब सजने लगे
जुबान खुली
तो जाने क्या सवाल उठने लगे

हम खड़े हैं
उनके गुनाहगार बनकर अपनी अदालत में
वो  खड़े हैं
अपने पहरेदार बनकर  हमारी अदावत  में

हमें याद हैं
अपना  दायरा और अपना आशियाना
नहीं याद हैं
तुम ,तुम्हारा नाम,पता और ठिकाना

गर इश्क है
एक गुनाह , तो जरुर हमने किया
शोलों को हवा देना हैं
एक  गुनाह, तो जरुर तुमने  किया

चलो भूल जाते हैं
ये गुनाह तुमने किया या हमने किया
हमने तो कहा कुछ नही
जो कहा तुमने लो   वो भी भुला दिया

(c)रामकिशोर उपाध्याय  
मेघ पर हाइकू 
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(१)

मेघ भी सजे 
आकाश में सलिल 
हृदय शुष्क 

(२)

झमजम है 
घर बाहर पानी 
व्याकुल मन 

(3)

सरिता रुष्ट 
नभ होता विक्षिप्त 
मानव त्रस्त

(c)राम किशोर उपाध्याय

Thursday, 11 July 2013

धन्य हे प्रभु !

किसी से मुरली बनाया और होठों से बजाया
किसी ने घुंघरू बनाकर  महफ़िल  में नचाया

कभी किसी पंडितजी  ने घंटा बनाकर बजाया
कभी मौलवी साहेब ने नमाज का भोपू बनाया 
 
कभी कहीं गुलाम समझा और बहुत तडपाया
न कभी किसी ने उठाया,न ही सीने से लगाया

किसी ने प्रसाधन समझकर   चेहरा चमकाया 
कभी किसी सत्ता मदांध के हाथों जूता खाया

फिर भी 'स्व' बचाकर आगे बढ़ता चला आया
धन्य हे प्रभु ! अजब है तेरी लीला और माया

राम किशोर उपाध्याय     

Wednesday, 10 July 2013

होसलें का सवाल

न तेज आंधियां चली हैं, न तेल का  सवाल हैं  ,
दिया गर बुझा हैं,ये कम होसलें का कमाल हैं ।

रामकिशोर उपाध्याय 
कुछ मुक्तक
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अक्सर ….
टूटता है बंधन
होता हैं कृन्दन

सदैव ----
दिल करता है प्यार
चक्षु करता है प्रहार

कभी -कभी-----
लहरें जोर से उछलती  हैं
प्रीत की डोर से गिरती हैं

अभी नहीं -----
शिरायें  आलिंगन मांगती हैं
फिर कभी ,जुबान टालती  हैं  
 
कभी नहीं ------
दो किनारों में बहता पानी  
सामिप्य हैं लम्बी कहानी    


(c)राम किशोर उपाध्याय

 

Tuesday, 9 July 2013



बाहर बारिश हो रही हैं 


बादल ने गरज कर आज ये क्या कर दिया

अनछुई देह को अग्नि में स्वाहा कर दिया


होंठ सिल गए और दिल धक धक करने लगा

इल्जाम बस आँखों के नाम चस्पा कर दिया



Ramkishore Upadhyay

Monday, 8 July 2013


बेखुदी में अक्सर ऐसा ही होता हैं !

हर रोज
एक ख़त लिखा
लिखा और पोस्ट कर दिया

महीने के बाद
एक डाकिया आया
साहेब इनाम इकराम दीजिये
और बोला
साहेब ये कुछ आपके ख़त आये है
लगता हैं आपको किसे से इश्क हो गया
हर रोज एक ख़त भेज रहा हैं

दिल बल्लिओं उछलने लगा
शायद पड़ोस में रहने वाली हो
या वो ऊपर वाली
दस रुपये दिए
बैठक में इत्मिनान से खोलने लगे

तभी जोर से चीखे
डाकिया लूट ले गया
इनपर तो खुद मेरा ही पता लिखा हैं

बेखुदी में दोस्तों
अक्सर ऐसा ही होता हैं

राम किशोर उपाध्याय
फिर वही तो ऐसा क्यों ?
=++++++++++=

समय का चक्र
चल रहा है वही अपनी गति से
वही पृथ्वी
वही नभ के इर्दगिर्द
अवनि
पर वैसे ही जन्म दे रही  जननी
परिंदे भर रहे हैं वही उड़ान क्षितिज तक
सागर में वही चक्र ज्वार भाटे का
वही उदात्त लहरे
वही रोकते किनारे
चन्द्र वही
उसकी चाहत में मग्न वही चकोर
वही सोलह कलाएं
वही अमावस
अप्रतिम पूर्णिमा वही
वही निर्झर झरना
वही नील अम्बु
फिर ये  क्यूँ  हैं भूचाल
इन हवाओं  में
क्यूँ है भावनाओं में उबाल
ये नन्हे तारे
क्यूँ हैं गर्दिश के मारे
मेरे इर्दगिर्द सारे
क्या अब नहीं बन रही
कोई आकाश गंगा
क्या सृजन नहीं हो रहा
किसी नूतन अन्तरिक्ष का
क्या नए सागर नहीं बन रहे हैं

लगता हैं ----
मुझे ही कुछ करना पड़ेगा
करूँगा  निर्माण विश्वास के अन्तरिक्ष का
जिसमे सी दूंगा
इन गर्दिश में पड़े इन तारों को
नयी धरती का
जिसको  अपने धैर्य से सजा दूंगा
निराशा से उबार
करूँ एक आशा-संचार
फिर लूँ मैं क्यूँ किसी से अपनी जिंदगी उधार
बस पा जाऊं जीवन का  ठोस आधार ................

RAMKISHORE UPADHYAY
9-7-2013

Saturday, 6 July 2013

दुनिया को अभी ठीक से जाना भी नही हैं

(MAIN*HUN*NA) में पेश ये ग़ज़ल 


दुनिया को अभी ठीक से जाना भी नही हैं 
यहाँ  इंसान को अभी पहचाना भी नहीं हैं

किसी को तलाशते आये है अभी  शहर में  
रहे  किधर यहाँ कोई ठिकाना भी नहीं हैं 

न देखा हमने सहरा और न गुलिस्तां को  
कैसी है तपन और खुशबू,जाना भी नहीं हैं 

पर्वत सी हो ऊंचाई मेरे उम्दा ख्याल  की 
दर्द कैसे भरदूँ  जब चुभा कांटा भी नहीं हैं   

हो तो गये है शामिल तेरी इस महफ़िल में
सलीका  और अदब अभी जाना भी नहीं हैं   


रामकिशोर उपाध्याय 

एक दास्तान -------------


ये कैसी दास्तान लिख रहो हो तुम इश्क  की
ना होठों में जुम्बिश है, न कलम चल  रही है

फिर भी हैं चर्चा आम तुमको हमको लेकर
लगता हैं आंखे से ही मस्ती  छलक रही हैं

रामकिशोर उपाध्याय

Thursday, 4 July 2013

आज का विचार

बेशक तुम किसी के बताये क़दमों पर चलो
पर राह पे अपने निशान जरुर छोड़ते चलो

रामकिशोर उपाध्याय 

+ मैं नचिकेता नहीं हूँ +


पीड़ा अंतर्मन की 
क्या है 
क्यों है 

क्या है 
स्वाभिमान 
आत्मसम्मान 

क्यों होता हैं 
दर्द शब्दों से 
तीर तो कुछ पेशियाँ 
तितर- बितर  करते हैं 
और चुप हो जाते हैं 
शब्द क्यों कोंधते रहते हैं
सुसुप्त मन में भी 
अक्स धुंधले जरुर होते  है 
मिटते क्यों नहीं 

मेरे भीतर 
दंभ क्यों हैं 
दर्प क्यों हैं 
वासना क्यों हैं 
उपासना क्यों नहीं हैं 
क्रोध की अग्नि क्यूँ जलती मुझे 
मेरे मरने से पहले 
वो भी बिना लकड़ी ,,,,,
बिना घी 

क्यूँ करते हैं 
विरोध के शब्द 
मेरी कपाल क्रिया ,,,,,,
पुत्र के बिना ही 

क्यों नहीं आ रहे प्रश्न 
जो नचिकेता ने किये 
यमराज से 
परन्तु यहाँ का यमराज .......
तीन वर मांगने को नहीं कहता 
लम्बी सी जेब उन कागज़ के टुकड़े से भरने को कहता 
जिस पर चित्र छपा सबके लिए 
लाठी लिए एक पिता ने 
जिसने पुरे परिवार के लिए धोती छोड़ी लंगोटी पहनी 
कोट त्यागा, लपेटा  सूती धागा 
और गोली खाके सीने पर राम राम बोलता 

मैं नचिकेता का हश्र जानकर 
सन्नाटे में चीत्कार करता 
और मुंह  पर ताला लगाकर 
एक असफल प्रयास करता कुछ एक साँसे बचाने  का ...
और अपने ऊपर लिखे प्रश्न 
अपनी कभी न उतरने वाली केचुल में रखकर 
बड़ा तीसमारखां बन जाता।  

राम किशोर उपाध्याय 

Wednesday, 3 July 2013

किस्मत की लहरें


बामुश्किल चल पाए थे चार कदम साथ
किस्मत की लहरों ने मिटाया हाथों हाथ

करते रहे फरयाद पलभर की जिंदगी की
वो लुटाते रहे गैरों को जवानी की सौगात

जैसे जैसे बढ़ते चले काफ़िले लुटते गए
कारवां के इंतज़ार में बीत गए दिन रात  

कुछ और सबब दे जाते वो  हमें जीने का
ना मालूम था इतना थोडा  मिलेगा साथ

हम बुतपरस्त हैं फिर तराश लेंगे  मूरत
जन्नत की किसे पड़ी हैं यही रहे आबाद

Ramkishore Upadhyay
३-७-२०१३

Tuesday, 2 July 2013

इश्क और जंग ++++++++





वो जान मांगती मैं दे देता
सिसकती रातें कैसे दे देता

महकती सारी सांसे दे देता
गूंगे साज उन्हें कैसे दे देता

मिटा देता अपनी हस्ती को
इज्ज़त आबरू कैसे दे देता

एक इशारे पर हो जाते फ़ना
मुगालते में अना कैसे दे देता

इश्क और जंग में सब जायज़
ऐसे में  घुटने कैसे टेकने देता

RAMKISHORE UPADHYAY

Monday, 1 July 2013

आज +++


 अपने -अपने स्वार्थ
उद्देश्य मात्र अर्थ
अपने अपने पथ
चढ़ चले पवन-रथ
वक्षस्थल भेदन
सत्य का उद्घोष
असत्य का प्रयोग
आगे बढ़ता छल
क्षद्म सत्ता
अनावृत  चरित्र
सिंहारूढ़ दर्पयुक्त
नहीं शक्ति
नहीं भक्ति
व्यक्तिव -----------------------
सिर्फ लुंजपुंज ,,,,,,,
सिर्फ लुंजपुंज ,,,,,,,


राम किशोर उपाध्याय

जाने के बाद



















जब  पत्ता गिरा यादों के लम्बे दरख्त से सूखकर 
 जिस्म पे जख्म न थे पर हर शाख रोई दहाड़कर  

गहरी जड़ें हिलने लगी और कलियां मुरझा गयी
जब वो शाख पे आबाद हिस्सा जाने लगा उड़कर  

वो बाशिंदे वो चीटियाँ  जो बैठा करती थी उसपर 
गुमसुम हो गए यह कहकर अलविदा ऐ रहबर

रात   ओंस की चांदी और वो सुबह सोने की लकीरें 
अब नहीं होंगी रोशन उड़ गयी हवा में यह सोचकर

जाने के बाद फिर नहीं होगा आना  पक्का है उसूल 
वक़्त का एक ही लम्हा रख देता है सबको तोड़कर   

राम किशोर उपाध्याय