मेरी कविता
जिसे ढूंढता हूँ
सपनों की परछाई में
जिसे खोजता हूँ
सागर को गहराई में
जिसे पाता हूँ
दहकते पलाश की ललाई में
जिसे देख बहता हूँ
कल -कल करती नदी की अंगड़ाई में
कौन हो तुम ?
कौन हो तुम ?
कही तुम
झर-झर बहता झरना तो नहीं
कही तुम
गुनगुनाता मधुप तो नहीं
कही तुम
अधरों पे टिकी कृष्ण की बांसुरी तो नहीं
कही तुम
फूल फूल कूदती तितली तो नहीं
कही तुम
झूम झूम गाती बयार तो नहीं
कही तुम
आशा के उजाले में लिपटी सुबह तो नहीं
कही तुम
मंजिल से भटकी डगर तो नहीं
कही तुम
ग़म में डूबी शाम तो नहीं
कही तुम
प्रतीक्षारत पत्नी तो नहीं
कही तुम
मनुहार कराती प्रेमिका तो नहीं
मुझे तो लगता हैं तुम सब कुछ हों
जीवन की लय
आदि और प्रलय
विस्तृत नभ
अनंत सागर
दिन-प्रतिदिन का ज्वार
हरी भरी धरती
बंजर और परती
अपना दर्द विस्मृत
परहित विस्तृत
बिना जूती
जग जंगल में भटकती
पाने को नवत्राण
पोषित करता स्वप्राण
झूलती लता
फूलती कली
लहरों पे चल नंगे पांव
छूता नए पुराने गाँव
ना बहर का ख्याल
ना नुक्ते का सवाल
बस भाव ही मीत
व्यक्त होता गीत
ना याद रखता छंद की मात्रा
शब्दों की एक अंतहीन यात्रा
बस
शब्दों की एक अंतहीन यात्रा
(C) रामकिशोर उपाध्याय
जिसे ढूंढता हूँ
सपनों की परछाई में
जिसे खोजता हूँ
सागर को गहराई में
जिसे पाता हूँ
दहकते पलाश की ललाई में
जिसे देख बहता हूँ
कल -कल करती नदी की अंगड़ाई में
कौन हो तुम ?
कौन हो तुम ?
कही तुम
झर-झर बहता झरना तो नहीं
कही तुम
गुनगुनाता मधुप तो नहीं
कही तुम
अधरों पे टिकी कृष्ण की बांसुरी तो नहीं
कही तुम
फूल फूल कूदती तितली तो नहीं
कही तुम
झूम झूम गाती बयार तो नहीं
कही तुम
आशा के उजाले में लिपटी सुबह तो नहीं
कही तुम
मंजिल से भटकी डगर तो नहीं
कही तुम
ग़म में डूबी शाम तो नहीं
कही तुम
प्रतीक्षारत पत्नी तो नहीं
कही तुम
मनुहार कराती प्रेमिका तो नहीं
मुझे तो लगता हैं तुम सब कुछ हों
जीवन की लय
आदि और प्रलय
विस्तृत नभ
अनंत सागर
दिन-प्रतिदिन का ज्वार
हरी भरी धरती
बंजर और परती
अपना दर्द विस्मृत
परहित विस्तृत
बिना जूती
जग जंगल में भटकती
पाने को नवत्राण
पोषित करता स्वप्राण
झूलती लता
फूलती कली
लहरों पे चल नंगे पांव
छूता नए पुराने गाँव
ना बहर का ख्याल
ना नुक्ते का सवाल
बस भाव ही मीत
व्यक्त होता गीत
ना याद रखता छंद की मात्रा
शब्दों की एक अंतहीन यात्रा
बस
शब्दों की एक अंतहीन यात्रा
(C) रामकिशोर उपाध्याय
बहुत खूब सर, जो अनंत की रचना करता, वही जानता सारे मसले, बहुत सुंदर व गहरी अर्थ युक्त पंक्तियां ।
ReplyDeleteआदरणीय मिश्र जी आपका उत्साहवर्धन के लिए आभार
ReplyDeleteछंद क्या है छंद तो बंधन है?
ReplyDeleteहमें तो जीना श्वछंद है!
बहुत की उत्कृष्ट पंक्तियाँ हैं। इसके लिए आपको धन्यवाद। पढकर अच्छा लगा।