Sunday, 6 October 2013

सड़क पर चुभते कंकड
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एक दिन जब
मूर्तिकार ने जोर से छेनी चलाई
एक रक्त की धार
मूर्ति की आंख से बह गई
हैरान था वह
कभी ऐसा हुआ नहीं
वह प्रश्न कर बैठा
प्रभु, अपराध तो बताये ?
इतने बरसों से आप नहीं बोले ?
मेरी छेनी हथौड़ी
तो ऐसी ही चल रही हैं,
बरसों से,,,,,,,,,,,,,,,
देखो !
जब तक भाव में समर्पण और आस्था थी
मैं चोट खाकर रूप धर रहा था
आज तुमने क्रोध से छेनी चलाई
इसलिए मुझे भी क्रोध आ गया
तुम शायद समझ रहे हो
कि तुम कुछ भी घड़ सकते  हो
ईश्वर यानि मुझे भी
यह तुम्हारा भ्रम हैं
यहाँ मेरी इच्छा के बिना कुछ नहीं होता
मेरी मूर्ति का बनना भी
मैं प्रेम के वशीभूत हूँ
प्रहार का नही
अब वह
संभलकर पांव रखता हैं
सड़क के चुभते
कंकडों पर भी ,,,,,,,,,,,,,

रामकिशोर उपाध्याय

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