Sunday, 5 January 2014

तुमने क्या राग छेड़ दिया,
दग्ध ह्रदय को कुरेद दिया,
देखा प्रतिकूल समय-गति,
तो क्यों चक्र ही तोड़ दिया. 


साजन भी व्याकुल और सजनी अधीर,
दमकत हैं दामिनी,बादल उड़े बिन नीर , 
गीतों में भरी वेदना ,संगीत लगता शोर, 
अभिसार हुआ दुर्लभ,मरघट बना शरीर.



उनसे कह दो धूप में बाहर ना जाये,
रहे पोशीदा और चिलमन ना उठाये,
फलक पर छाये हैं बादल मालूम हो,
नाजुक बदन हैं कहीं फिसल ना जाये




के नाकाम तमन्नाओं से जिस्म*जलते हैं,
फिर ये पिघलकर क्यों अश्क बन बहते हैं.



ना सागर हूँ ठहरा हुआ,ना बहका किनारा,
मौज -ऐ-दरिया हूँ, खुद से इश्क का मारा.

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