-
एक अजीब सा
स्वप्न है जीवन
जो यथार्थ की भूमि पर
चुपके से उतरता है
स्वप्न और यथार्थ के मध्य
मैंने अपनी देह का अनुभव किया
समय के इस कालखंड में
उसने सिर्फ एक आत्मा समझा है मुझे
वह मेरी आत्मा को
देह का परिधान देना चाहती है
सूरज के बिना धूप का अस्तित्व
मात्र कोरी एक कल्पना ........
जैसे स्वयं का स्वयं को ही
ज्ञानी जानकर छलते जाना ...
जीवन के सरोकार तो देह से पूरे होते है
जैसे किसी लता को ऊपर चढ़ने के लिए
किसी दीवार या पेड़ का अवलंब
और आत्मा से तो होता है
सिर्फ परलोक गमन.........
और मैं अभी
इस नश्वर काया में जीना चाहता हूँ.....
*********************
रामकिशोर उपाध्याय
स्वप्न है जीवन
जो यथार्थ की भूमि पर
चुपके से उतरता है
स्वप्न और यथार्थ के मध्य
मैंने अपनी देह का अनुभव किया
समय के इस कालखंड में
उसने सिर्फ एक आत्मा समझा है मुझे
वह मेरी आत्मा को
देह का परिधान देना चाहती है
सूरज के बिना धूप का अस्तित्व
मात्र कोरी एक कल्पना ........
जैसे स्वयं का स्वयं को ही
ज्ञानी जानकर छलते जाना ...
जीवन के सरोकार तो देह से पूरे होते है
जैसे किसी लता को ऊपर चढ़ने के लिए
किसी दीवार या पेड़ का अवलंब
और आत्मा से तो होता है
सिर्फ परलोक गमन.........
और मैं अभी
इस नश्वर काया में जीना चाहता हूँ.....
*********************
रामकिशोर उपाध्याय
No comments:
Post a Comment