Saturday, 8 June 2013

साहिल पे मौजों का नज़ारा देखता हूँ,



साहिल पे मैं बस, मौजों का नज़ारा देखता हूँ,
वो जाती बार बार, मैं पैरों के निशां देखता हूँ। 

जब लहरों में डगमगाती जब खुद्दार वो कश्तियाँ,  
पुख्ता इरादे के नाखुदा में , मैं फ़रिश्ता देखता हूँ।

जहाँ तहां पड़े हैं यहाँ सीप, घोंगे और कौड़ियाँ ,
समेटने में मशगूल ,मैं परेशान जहाँ देखता हूँ।

जाल को काट कर हंस रही हैं  व्हेल मछलियाँ ,
मछुवे के सन्नाटा परसे मैं बस मकाँ देखता हूँ।

मुसाफिर को जब छलती है सागर में दूरियां ,
इश्क में  जलता ,खुद का ही दिया देखता हूँ।

दिन ढले अक्सर छाती  हैं रूह में  विरानियाँ
चांदनी से होता  मैं चंदा का निकाह देखता हूँ।

घिरती  रात में बढ़ती हैं लहरों की अठखेलियाँ 
कल  फिर मिलेंगे, इस यकीं में खुदा देखता हूँ।

रामकिशोर उपाध्याय 

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