Monday, 20 May 2013


ये कैसी अजीब कशमकश है  उल्फत में
दिल के कहे को   दिमाग मानता  नहीं ,

वो अक्सर हमसे सवाल करते रहते है  
सुनते हो क्यों उसकी जो धड़कता नहीं .

तमन्नाओं के मेले में हम तो अकेले है
कर रहे है आरजू उसकी जो सुनता नहीं

ढूंढती है आंखे उस महबूब-ए-खास को
गुम हुआ जो उजाले में वो मिलता नहीं

लहरे भी लौट जाती है एक वक़्त के बाद
नादाँ मौजों को साहिल कभी मिलता नहीं

राम किशोर उपाध्याय

8 comments:


  1. बहुत सुन्दर प्रस्तुति!
    आपको सूचित करते हुए हर्ष हो रहा है कि-
    आपकी इस प्रविष्टी की चर्चा कल बुधवार (08-04-2013) के "http://charchamanch.blogspot.in/2013/04/1224.html"> पर भी होगी! आपके अनमोल विचार दीजिये , मंच पर आपकी प्रतीक्षा है .
    सूचनार्थ...सादर!

    ReplyDelete
  2. बहुत सुन्दर प्रस्तुति...!
    आपको सूचित करते हुए हर्ष हो रहा है कि आपकी इस प्रविष्टि की चर्चा कल बुधवार (22-05-2013) के कितनी कटुता लिखे .......हर तरफ बबाल ही बबाल --- बुधवारीय चर्चा -1252 पर भी होगी!
    सादर...!

    ReplyDelete
  3. तमन्नाओं के मेले में हम तो अकेले है
    कर रहे है आरजू उसकी जो सुनता नहीं ..बहुत खूब!

    ReplyDelete
  4. बिना शीर्षक की कविता
    लगे दिल कहीं खो गया है

    ReplyDelete