Tuesday, 14 May 2013

क्या अंतर पड़ता है,

नभ का विस्तार
अवनि की बड़ी सी चादर
किसी पीर की दरगाह पर  
क्षितिज तक फैली हुयी
सागर की उद्दाम लहरे
जो किश्ती डुबोती नहीं
बस लील जाती हो
झींगे और मछलियों की तरह
जल बिन व्याकुल
ह्रदय को सीप में छिपाकर
चोरी से बचाती
भावनाओं को तरंगों में समेटकर
अनकहे शब्दों में अदृश्य
छोटे  वृक्षों की लम्बी छाया
ताल  में खिले कंवल
सूर्य की किरण का भ्रम कराती
धुप में खिली चांदनी सी मोहक
लालित्य का अनुपम भंडार
साहित्यिक अभिव्यक्ति से परे
अलभ्य सोंदर्य से  श्रृंगार को चिढाती

किसी  विशेषण से अधिक विशेष



तुम ही तो हो
तुम कभी  कहते हो कि माया हो ?
कभी बताते छाया हो ?
और दिखाते कि प्रतिच्छाया हो ?
लौकिक,पारलौकिक
और अलौकिक की स्थूल और सूक्ष्म की मर्यादा से विहीन हो
दिग्दिगंत तक प्रसारित निर्बाध सुगंध हो !
जीवन  का  जीवन से अनुपम अनुबंध हो !
हो ना जिसके बिन सवेरा
वो उषा की पहली किरण  हो !
क्या अन्तर पड़ता है , तुम क्या हो ?
मेरे लिए  बस तुम  हो , यही क्या कम है !!!!!!!!  
  
राम किशोर उपाध्याय


  

No comments:

Post a Comment