वह निकली ही अकेली थी
वह पिघली भी अकेली थी
हँसती रहती वो पलपल
पवन को सुनाती रहती
गीत मधुरिम हो विह्वल
मिलाती सुर कोकिला से
सदा करती वो कलकल
उसका बहते रहने न भाया
कुछ ले आये फावड़े,मशीन
कुछ ले आये ट्रेक्टर ,,,,और
खोद डाला अस्तित्व महीन
किसी ने उसे एक नद से जोड़ डाला
कहीं उसको रोककर जड़ दिया ताला
बलात निरंतर प्रवाह को मोड़ डाला
कोई ले आया कचरे का एक नाला
सुरसरि में बहने लगा काला-काला
सो गयी जो भी थी उसकी सहेलियां
क्रोधित मछुवे ने जाल तोड़ डाला
लोग अब भी जुट रहे हैं उसके तट
लेकर आस्था का अर्द्ध या पूर्ण घट
किन्तु वह अब नहीं चाहती बह जाना
मगर किसी को पता ही नहीं
उसका धीरे-धीरे खामोश होते जाना
सरकारी विज्ञापनों में
नदी अभी भी ज़िंदा है
××
रामकिशोर उपाध्याय
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