हर शब्द ...
जब हो जाता है निस्शब्द
तो ढल जाता है एक -एक करके सांचे में
बस वक्त के अदृश्य ढांचे में
और लेखनी को कर देता है बेजार
और रचनाकार हो उठता है बेक़रार
कभी उन्हीं शब्दों को कहता उदासी
बनकर जैसे हो कोई सन्यासी
ढूंढता अर्थ विरक्ति में
धर्म अथवा दर्शनविहीन भक्ति में
अवतरित शब्द ...
कभी जब नुपुर बनकर कहीं बजते
तो गीतों में प्रेम -संदेशों में जाकर सिमटते
भावविभोर हो पायल में जाकर टूट जाते
और वर्षा की बूंदों को तरसते चातक में मुंह में जाकर फूट जाते
खुले सीप में मोती बनकर प्रणय की अंगूठी में जड़ते
कभी विरह चट्टानों जैसे जड़ होकर राह में तड़पते
यही शब्द ...
शबनम में जाकर चुपचाप सो जाता
और परिंदों की चोंच में जाकर उजाले के बीज बोता
भोर की पहली किरण के रथ पर होता सवार
ले जाता रवि को पर्वत से उस पार
सायं को नायिका के प्रणय निवेदन के सुरों में खनकता
काजल सा आँखों में घुलता
मधुमास और मधुशाला में मध्य टहलता
प्यार और प्यास में बीच गमकता
वही शब्द ......
हर बार एक नया अर्थ खोजते
हर तर्क से नये विमर्श गढ़ते
विवश होते फूट पड़ने को
और नई कोंपलों जैसे नहा धोकर निखरते
मगर हर बार कविता बनकर
पुष्पित होते
फलित होते
और कवि के कंठ में मुस्काते
जैसे
भगवान शिव के गले में पड़े हो
माता पार्वती के हर जन्म के पड़े मुंड
प्रेम के प्रतीक स्वरुप अलभ्य और अखण्ड ..
**
रामकिशोर उपाध्याय
यह रचना आज सुबह से ही व्यग्र ही उतरने के लिए ...यह अमर कथा से प्रेरित है जो शिव भगवन ने माता पार्वती को सुनाई थी ..
21.4.2015
तो ढल जाता है एक -एक करके सांचे में
बस वक्त के अदृश्य ढांचे में
और लेखनी को कर देता है बेजार
और रचनाकार हो उठता है बेक़रार
कभी उन्हीं शब्दों को कहता उदासी
बनकर जैसे हो कोई सन्यासी
ढूंढता अर्थ विरक्ति में
धर्म अथवा दर्शनविहीन भक्ति में
अवतरित शब्द ...
कभी जब नुपुर बनकर कहीं बजते
तो गीतों में प्रेम -संदेशों में जाकर सिमटते
भावविभोर हो पायल में जाकर टूट जाते
और वर्षा की बूंदों को तरसते चातक में मुंह में जाकर फूट जाते
खुले सीप में मोती बनकर प्रणय की अंगूठी में जड़ते
कभी विरह चट्टानों जैसे जड़ होकर राह में तड़पते
यही शब्द ...
शबनम में जाकर चुपचाप सो जाता
और परिंदों की चोंच में जाकर उजाले के बीज बोता
भोर की पहली किरण के रथ पर होता सवार
ले जाता रवि को पर्वत से उस पार
सायं को नायिका के प्रणय निवेदन के सुरों में खनकता
काजल सा आँखों में घुलता
मधुमास और मधुशाला में मध्य टहलता
प्यार और प्यास में बीच गमकता
वही शब्द ......
हर बार एक नया अर्थ खोजते
हर तर्क से नये विमर्श गढ़ते
विवश होते फूट पड़ने को
और नई कोंपलों जैसे नहा धोकर निखरते
मगर हर बार कविता बनकर
पुष्पित होते
फलित होते
और कवि के कंठ में मुस्काते
जैसे
भगवान शिव के गले में पड़े हो
माता पार्वती के हर जन्म के पड़े मुंड
प्रेम के प्रतीक स्वरुप अलभ्य और अखण्ड ..
**
रामकिशोर उपाध्याय
यह रचना आज सुबह से ही व्यग्र ही उतरने के लिए ...यह अमर कथा से प्रेरित है जो शिव भगवन ने माता पार्वती को सुनाई थी ..
21.4.2015
आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल मंगलवार (11-12-2018) को "जातिवाद में बँट गये, महावीर हनुमान" (चर्चा अंक-3182) पर भी होगी।
ReplyDelete--
चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
--
हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
आदरणीय ,हृदय से आभार
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