Wednesday, 12 December 2018

ठंडा होता सूरज


हर तरफ शोर है 
धुंध में लिपटी भोर है 
खाकर जमीन की कसमें 
पेड़ों को हवाएं लील रही है 
समंदर में उबल रही हैं 
मछलियों की बस्ती
बादलों से बरस रही है
तेजाब की सूखी नदी
ध्रुव पर पेंग्विनों की
लाशों के अंबार हैं
कहने को सावन की फुंहार है
धवल चान्दनी अब जल रही है
पर सत्ता की घुड़दौड़ में
पश्चाताप नहीं,वार्तालाप नहीं
केवल प्रलाप है गहरे
या चल रहे हैं मौहरे
आमजन के वक्षस्थल पर रुपहले
कुछ तुरप के पत्ते ...नहले पर दहले
और न्याय का सूरज .....
ठंडा हो रहा है उदय होने से पहले
*
रामकिशोर उपाध्याय

6 comments:

  1. आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल शुक्रवार (14-12-2018) को "सुख का सूरज नहीं गगन में" (चर्चा अंक-3185) पर भी होगी।
    --
    सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
    --
    चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
    जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
    --
    हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
    सादर...!
    डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'

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  2. सुंदर और भावपूर्ण रचना

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  3. बहुत सुन्दर

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