संस्मरण -17 मई की फेसबुक पोस्ट से आगे
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जब -----गधा बनाया
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जब मैंने जोधपुर में पहली बार नौकरी जॉइन की तो यह शहर तब विकसित हो रहा था। ठीक उसी तरह जैसे भारत की जवानी परवान चढ़ रही थी। मन में नई उमंग और आशा की गागर लेकर मैं भी जीवन के समंदर में अपनी नन्ही सी नांव लेकर उतर रहा था। समंदर इसलिये कह रहा हूँ कि इसका ओर -छोर किसी को पता नहीं चलता । सागर विशालता के साथ -साथ अनिश्चितता का भी प्रतीक है। उर्ध्वगामी चेतना लेकर सम्पूर्ण मानवता इस सागर में जीवन के माणिक और मोती प्राप्ति हेतु उतरने के लिए सदसंकल्पित है। जोधपुर के लोग भी इसी दिशा में बढ़ रहे थे। वे अब भीड़भाड़ के मौहल्ले छोड़कर नई बस्तियां बसा रहे थे,ताकि खुली हवा का आनंद ले सके। अपने बढ़ते परिवारों को एक अच्छा रहन -सहन दे सकें। राजशाही के दौरान बने पोल और परकोटों के बाहर इसी लक्ष्य की पूर्ति हेतु रातानाडा,भगत की कोठी,वासनी,शास्त्रीनगर आदि नई बस्तियां आकार ग्रहण कर रहीं थी। शास्त्रीनगर जोधपुर इम्प्रूवमेंट ट्रस्ट की कालोनी है। शाम को खाने- पीने के बाद हम यू.पी.,बिहार और बंगाल के प्रवासी युवा रेलवे कर्मी शास्त्री सर्किल पर इकट्ठा होते। भारतभूषण शर्मा, शैलेन्द्र शर्मा,संतपाल स्वरूप,सिद्धनाथ,जी.पी. पाण्डेय,तरुण चटर्जी,दिलीप मुखर्जी ,आर.एन.सहाय,शशि प्रकाश,विनोद दीक्षित, आदि का यह गिरोह रात के बारह बजे तक चुटकुले,गाने गाना और अच्छी बुरी मजाक खूब करते रहते ।तब टीवी का जमाना था नहीं । आज के इस दौर को देखे तो टीवी का न होना शायद अच्छा ही था । जब नींद आने लगती गिरोह के सदस्य धीरे-धीरे सर्किल से गायब हो जाते। यह शायद उम्र के अनुकूल ही आचरण था। उस समय तक जोधपुर में सामन्तवाद का प्रभाव दिखाई देता था जो उनकी जीवन शैली में ऐसे घुल गया था जैसे दूध में पानी या शक्कर , जबकि उत्तरप्रदेश या इतर राज्यों के युवा तो लोकतांत्रिक भारत में पैदा हुये थे । "हुकुम सा" कहना यहां व्यवस्था के प्रति सम्मान प्रदर्शन था। मैं भी धीरे -धीरे मारवाड़ी सीखने लगा और फिर उनसे उनकी बोली में बतियाने लगा।सबको अपनी बोली-भाषा से प्रेम होना स्वाभाविक है। शब्द कानों के रास्ते से दिल को छूते है तो शांत झील में हलचल पैदा करते है। पानी पर जमी पूर्वाग्रहों की गहरी हरी काई को भी संवाद हटा देता है।जोधपुर के अधिकांश लोग,धार्मिक, बहुत सज्जन,सरल ,सहज और मिष्टभाषी आज भी ।मेरी पटरी उनसे बैठने में देर नहीं लगी । वे मुझे स्नेह देने लगे।फिर मुझे जो कार्य दिया गया था ,उसके लिये कार्यालय का हर कर्मचारी और अधिकारी मुझसे संपर्क करता था।वहां मेरे बॉस थे देवकरण शर्मा । उनके पिताजी आगरा से आकर जोधपुर रेलवे में स्टेशन मास्टर नियुक्त हुए थे और फिर वहीं बस गए। वे उनकी दूसरी पीढ़ी थी जो रेलवे में सेवा दे रही थी। देवकरण शर्मा जी का मुझपर असीम स्नेह रहा। उन्होंने मुझे पुत्र की तरह रखा और मेरा कार्यालय के काम ही नहीं ,बल्कि जीवन के कई गुर अनजाने में सिखा गए। उनका हृदय पवित्र और जीवन सरल था। धर्म में पूर्ण आस्थावान शर्मा जी को मैंने शीघ्र ही कार्यालय की चिंताओं से मुक्त कर दिया। वे भी अल्पकाल की प्रगति से संतुष्ट थे और सभी को कहते थे कि यह लड़का बहुत मेहनती और जिम्मेदार है। विभागीय ट्रेनिंग में जब मैंने टॉप किया तो मेरे मुख्य अधिकारी श्री लाल चंद गेरा भी बहुत प्रसन्न हुए और जब उन्होंने कहा 'तुम मेरे ऑफिस की क्रीम हो " सुनकर हृदय गदगद हो उठा।
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जब -----गधा बनाया
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जब मैंने जोधपुर में पहली बार नौकरी जॉइन की तो यह शहर तब विकसित हो रहा था। ठीक उसी तरह जैसे भारत की जवानी परवान चढ़ रही थी। मन में नई उमंग और आशा की गागर लेकर मैं भी जीवन के समंदर में अपनी नन्ही सी नांव लेकर उतर रहा था। समंदर इसलिये कह रहा हूँ कि इसका ओर -छोर किसी को पता नहीं चलता । सागर विशालता के साथ -साथ अनिश्चितता का भी प्रतीक है। उर्ध्वगामी चेतना लेकर सम्पूर्ण मानवता इस सागर में जीवन के माणिक और मोती प्राप्ति हेतु उतरने के लिए सदसंकल्पित है। जोधपुर के लोग भी इसी दिशा में बढ़ रहे थे। वे अब भीड़भाड़ के मौहल्ले छोड़कर नई बस्तियां बसा रहे थे,ताकि खुली हवा का आनंद ले सके। अपने बढ़ते परिवारों को एक अच्छा रहन -सहन दे सकें। राजशाही के दौरान बने पोल और परकोटों के बाहर इसी लक्ष्य की पूर्ति हेतु रातानाडा,भगत की कोठी,वासनी,शास्त्रीनगर आदि नई बस्तियां आकार ग्रहण कर रहीं थी। शास्त्रीनगर जोधपुर इम्प्रूवमेंट ट्रस्ट की कालोनी है। शाम को खाने- पीने के बाद हम यू.पी.,बिहार और बंगाल के प्रवासी युवा रेलवे कर्मी शास्त्री सर्किल पर इकट्ठा होते। भारतभूषण शर्मा, शैलेन्द्र शर्मा,संतपाल स्वरूप,सिद्धनाथ,जी.पी. पाण्डेय,तरुण चटर्जी,दिलीप मुखर्जी ,आर.एन.सहाय,शशि प्रकाश,विनोद दीक्षित, आदि का यह गिरोह रात के बारह बजे तक चुटकुले,गाने गाना और अच्छी बुरी मजाक खूब करते रहते ।तब टीवी का जमाना था नहीं । आज के इस दौर को देखे तो टीवी का न होना शायद अच्छा ही था । जब नींद आने लगती गिरोह के सदस्य धीरे-धीरे सर्किल से गायब हो जाते। यह शायद उम्र के अनुकूल ही आचरण था। उस समय तक जोधपुर में सामन्तवाद का प्रभाव दिखाई देता था जो उनकी जीवन शैली में ऐसे घुल गया था जैसे दूध में पानी या शक्कर , जबकि उत्तरप्रदेश या इतर राज्यों के युवा तो लोकतांत्रिक भारत में पैदा हुये थे । "हुकुम सा" कहना यहां व्यवस्था के प्रति सम्मान प्रदर्शन था। मैं भी धीरे -धीरे मारवाड़ी सीखने लगा और फिर उनसे उनकी बोली में बतियाने लगा।सबको अपनी बोली-भाषा से प्रेम होना स्वाभाविक है। शब्द कानों के रास्ते से दिल को छूते है तो शांत झील में हलचल पैदा करते है। पानी पर जमी पूर्वाग्रहों की गहरी हरी काई को भी संवाद हटा देता है।जोधपुर के अधिकांश लोग,धार्मिक, बहुत सज्जन,सरल ,सहज और मिष्टभाषी आज भी ।मेरी पटरी उनसे बैठने में देर नहीं लगी । वे मुझे स्नेह देने लगे।फिर मुझे जो कार्य दिया गया था ,उसके लिये कार्यालय का हर कर्मचारी और अधिकारी मुझसे संपर्क करता था।वहां मेरे बॉस थे देवकरण शर्मा । उनके पिताजी आगरा से आकर जोधपुर रेलवे में स्टेशन मास्टर नियुक्त हुए थे और फिर वहीं बस गए। वे उनकी दूसरी पीढ़ी थी जो रेलवे में सेवा दे रही थी। देवकरण शर्मा जी का मुझपर असीम स्नेह रहा। उन्होंने मुझे पुत्र की तरह रखा और मेरा कार्यालय के काम ही नहीं ,बल्कि जीवन के कई गुर अनजाने में सिखा गए। उनका हृदय पवित्र और जीवन सरल था। धर्म में पूर्ण आस्थावान शर्मा जी को मैंने शीघ्र ही कार्यालय की चिंताओं से मुक्त कर दिया। वे भी अल्पकाल की प्रगति से संतुष्ट थे और सभी को कहते थे कि यह लड़का बहुत मेहनती और जिम्मेदार है। विभागीय ट्रेनिंग में जब मैंने टॉप किया तो मेरे मुख्य अधिकारी श्री लाल चंद गेरा भी बहुत प्रसन्न हुए और जब उन्होंने कहा 'तुम मेरे ऑफिस की क्रीम हो " सुनकर हृदय गदगद हो उठा।
हमारा बैच दफ्तर के काम को बढ़िया ढंग से करता था और साथ में अन्य सांस्कृतिक गतिविधियों में भाग लेता था। रेलवे का कार्यक्रम हो या शहर का ,हम शिरकत करने का जुगाड़ निकाल ही लेते थे। उस जमाने मे टाउन हॉल में काफी साहित्यिक और सांस्कृतिक कार्यक्रम होते थे। कालूराम प्रजापति उस समय लोकप्रिय लोक गायक थे। एक बार उन्होंने टाउन हॉल में अपना कार्यक्रम प्रस्तुत किया ।हम भी स्टेज पर उनकी टीम में जुगाड़ कर बैठ गए। आज यह गीत यूट्यूब पर उपलब्ध है।आप भी आनंद लिए बिना न रहेंगे ।।
फिर कुछ दिन बाद एक कव्वाली का कार्यक्रम हुआ तो मैं और भारतभूषण शर्मा बाकायदा कव्वालों की ड्रेस में बैठे और कव्वाली में सुर से सुर मिलाया। कव्वाली के बोल थे ,,,
"सालाहसाल की जुस्तजू ने हमें चंद आँसू दिए चश्मे तर के लिए
दुश्मनों पर तुम्हारी इनायत रही ,हम तरसते रहे एक नज़र के लिए '
फिर कुछ दिन बाद एक कव्वाली का कार्यक्रम हुआ तो मैं और भारतभूषण शर्मा बाकायदा कव्वालों की ड्रेस में बैठे और कव्वाली में सुर से सुर मिलाया। कव्वाली के बोल थे ,,,
"सालाहसाल की जुस्तजू ने हमें चंद आँसू दिए चश्मे तर के लिए
दुश्मनों पर तुम्हारी इनायत रही ,हम तरसते रहे एक नज़र के लिए '
एक बार जोधपुर के रेलवे इंस्टिट्यूट में एक सांस्कृतिक कार्यक्रम हुआ। उसने मैंने और भारत भूषण ने एक हास्य नाटक करने के लिये निवेदन किया। स्क्रिप्ट पढ़ने के बाद अनुमति मिली और मंचन कुछ इस तरह था।
(स्टेज से पर्दा उठता है। एक डॉक्टर की वर्दी पहनकर मैं एक यंत्र लेकर उपस्थित होता हूँ। यह यंत्र बजाने वाला बोंगो था । बोंगों में लंबे लंबे धागे बन्धे हुए थे और उसमें कुछ कागज़ के चौकोर टुकड़े फंसा रखे थे)
डॉक्टर : दोस्तो ,मेहरबानो, कद्रदानों आप सभी को सलाम ,नमस्ते ,आदाब और गुडईवनिंग है ।आज हम आपके सामने एक नया अविष्कार ले कर आये है। हमारी फार्मा कम्पनी ने एक ऐसे यंत्र का अविष्कार किया है जिसके द्वारा आपको बिना कोई टेस्ट कराए बीमारी का पता लग जायेगा।
दर्शकों की उत्सुकता जगती है। प्रश्न उछला,क्या करना होगा।
डॉक्टर: आपको कुछ नहीं करना होगा । बस इस धागे को अपनी अपनी सीधे हाथ की कलाई पर बांधना होंगा। एक पर्ची हम दे रहे है ।इसपर अपना नाम लिखकर हमे दे दें। हम इसे मशीन में फिट किये देते है। दो मिनट बाद ही इस मशीन में लगी आपकी नाम वाली पर्ची पर आपकी बीमारी यदि कोई है ,का नाम छप जाएगा।
(कुछ लोगों ने झिझकते हुए तो कुछ ने उत्सुकतावश धागा कलाई पर बांध लिया और नाम भी लिखकर दे दिया । डीएस,जोधपुर ( जिसे अब डीआरएम कहा जाता है ) जो कार्यक्रम के मुख्य अतिथि थे,उन्होंने भी धागा बांध लिया । पर्चियां मशीन में लगते ही, भारत भूषण शर्मा जो धोबी का रोल कर रहे थे, ने जोर से आवाज लगाई
"अबे ओ रामू, मेरे गधे कहाँ है?सुबह तुझे चराने के लिए दिए थे। रात हो गयी । अभी तक नहीं दिख रहे हैं ?
"मालिक,यहीं तो हैं सारे ।(कलाई में बंधे धागों वालो की ओर इशारा करते हुए कहा )मालिक ध्यान से देखो,सब बंधे तो पड़े हैं।"
"मालिक,यहीं तो हैं सारे ।(कलाई में बंधे धागों वालो की ओर इशारा करते हुए कहा )मालिक ध्यान से देखो,सब बंधे तो पड़े हैं।"
मेरे यह कहते ही हॉल से हंसी का फव्वारा हाल में फूटा और पर्दा गिर गया। जिनके हाथ में धागे बन्धे थे ,सभी झेंप गए। लेकिन बाद में सभी मे प्ले की तारीफ की।
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रामकिशोर उपाध्याय
क्रमशः
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रामकिशोर उपाध्याय
क्रमशः
बहुत सुन्दर और रोचक संस्मरण।
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