Thursday, 19 December 2013

प्रायश्चित 
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नहीं 
होता 
इतना सहज 
किसी को अपना कह देना 
कभी -कभी यह यात्रा
एक क्षण में पूरी हो जाती हैं
कभी -कभी यह यंत्रणा
बन युगों तक सहनी पड़ती हैं
कई -कई जन्मों तक
साहस नही जुटा पाता मन
क्योंकि मन तो मन ही हैं
सम्मान
तो करना ही होगा मन का
प्रेम हैं .......
तो प्रतीक्षा भी हैं
फिर रोज ख़त लिखे
प्रेम का अंकुर फूटने तक
परन्तु प्रेम ना मिलने पर
हैं कहाँ
प्रायश्चित .............

रामकिशोर उपाध्याय

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