कभी कडकती बिजली लपलपाती
कभी तेज झोंकों से डराती
कभी नन्ही –नन्ही
बूंदों की बौछार
तो कभी मूसलाधार
बरसात --
लगता हैं आई हैं आज
मेरी देहरी पर पहली बार
चाहती हूं फेंक दूं
अपनी चुनरिया
तंग अंगिया
और
औढ लू बूंदों की झीनी चदरिया
कह दूं –
हे गगन, हे पवन और हे धरा
हे प्रकृति महान-
ये गोल -गोल मुखाकृति
ये खंजन नयन
ये मदमस्त यौवन
जीवन अमृत को थामे ये नत कुच
स्वर्ण मेखला से सजा कटिप्रदेश
मृगी की चाल
बस देख ले इस बार
ना मिलूंगी अगली बार
आरहा हैं पुरूष मेरा, मेरा प्यार
मिल जायेगा सृजन का भार
बारम्बार ---
चाहे वारिद बरसे दिन चार
लांघकर देहरी, डूबो दे मेरा घर द्वार
ना मिलूंगी फिर बार-बार
मिलूंगी तो शिव के द्वार
जंहा होगी ना चाहट
नव देह की एक भी बार
ना ही चक्र आवागमन का
राग और द्वेष का
देव के चरणों में
मैं भस्म में लिपटी
मिलूंगी -
बस शून्य में सिमटी !
बस शून्य में सिमटी !!
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