Wednesday, 11 September 2013

तसव्वुर मेरा
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हो सकता है,,,करे फरेब जीस्त की यह अदा,
न की दगा हमने ,हम तो यूँ ही जिए हैं सदा।

बहके जरुर हैं कभी कभी बादलों के मानिंद,
ये तो हुक्म था हवा का,वर्ना नहीं चढ़ा नशा।

कोई हुस्न में मगरूर कोई अपनी ताकत में,
सब छूटा यही,मिला जो मुकद्दर में था बदा।

देखते हैं सब सपने और करते अमल अपने,
कोई बुत बना तो कोई राह में रह गया पड़ा।  

टूटे हुए आशियाने तो फिर भी बन जायेगे,
वो क्या जुड़ेंगे जिन्हें जुबान हैं किया जुदा।

करता हूँ हर वक़्त तसव्वुर नई तस्वीर का,
के आसमां से मिलने तो आयेगा मेरा खुदा।
 
रामकिशोर उपाध्याय
११-९-२०१३ 

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