मुक्तक
मुक्तक
एक बावरी काली सी बदरी घुमड कर जो बढी ,
भिगो गई मन की चादर थी जो आंगन में पडी।
कह गई उसकी आंखे वह सब अनकही,
वृक्ष थी पर वह लटक गई बन छुईमुई।
ले गई कुछ ना कहने का मुझसे वादा,
और छोड गई वो मेरी आंखे डबडबाई ।
कैसा था प्रणय का वह पल ,
निश्छल जैसा था वह छल।
भिगो गई मन की चादर थी जो आंगन में पडी।
वृक्ष थी पर वह लटक गई बन छुईमुई।
ले गई कुछ ना कहने का मुझसे वादा,
और छोड गई वो मेरी आंखे डबडबाई ।
निश्छल जैसा था वह छल।
निश्छल जैसा था वह छल।
ReplyDeleteक्या सुन्दर विरोधाभास है!
वाह!