बीच पर बैठे कुछ लोग
ढूंढ़ रहे थे कुछ मन की शांति
तन की शांति
लहरों के शोर से बेखबर, अनजान
चल रहा था द्वंद, जो कह रही थी
सावधान !तट
हम आ रही है , आती रहेंगी
जब तक तुम्हे लील न जाये
हंस पड़ा तट - बिना कमजोर हुए
ओ लहरों ! क्या तुम मुझे यही प्रतिफल दोगी
मुझसे ही क्रीडा करने का
मत भूलो , बंधा है मैंने समुद्र को अपने बंधन में
दिया है आकार- प्रकार
वर्ना जमीं पर ओ लहरों
लील जाता तुम्हे सूर्य
सोख लेती तुम्हे धरा
गंभीर हो, लहरें कुछ थम सी गयी
तट भी उनका आशय समझ गया
और दे बैठा उन्हें पुनः निमंत्रण क्रीडा का
निशा बढ़ने लगी
चांदनी ने पूरे समुद्र पर चादर फैला दी
लोग उठकर जाने लगे
जाने बिना
तट का लहरों से प्रेम को
समुद्र का मर्यादा के प्रति सम्मान को
और
लहरों का शोर में छिपे निरंतरता के उद्घोष को -----
निशा बढ़ने लगी
ReplyDeleteचांदनी ने पूरे समुद्र पर चादर फैला दी
लोग उठकर जाने लगे
जाने बिना
तट का लहरों से प्रेम को
समुद्र का मर्यादा के प्रति सम्मान को
और
लहरों का शोर में छिपे निरंतरता के उद्घोष को -----....wah bahut khoob ....shabdo ki gahari har shabd mai najar aa rahi hai ....bahut hi sunder .
शशिजी धन्यवाद. आप जैसे प्रशंसक ही सच्ची प्रेरणा है मुझे.
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