Friday, 18 November 2011


'खुद का जिबह'


सुख असीम
दुःख अनंत
सिर्फ मनस्तिथि
पर
सुख के निर्विघ्न क्षणों में
मन के  रथ के घोड़े जब निरकुंश   हो
पंक में सरपट दोड़े तो
विवेक के खड़क से
खुद को
जिबह  करने दौड़ पड़ता हूँ.

जीवित संशय

कौन है
हम
सागर से सिमटकर कूप बनते
विद्वता से घटकर मूढ़ बनते
परन्तु चंद सिक्को की अल्पता से अधिकता को समर्पित
निरजीव  संदर्भो में उलझे
उर्ध्वगमन के भ्रम को  पालते
जीवंत के प्रति  उदासीन
थमे हुए ज्ञान के उत्तराधिकारी
हम---
जीवित संशय हैं
सिद्ध नहीं.





3 comments:

  1. जीवित संशय हैं
    सिद्ध नहीं. वाह्ह्ह्हह्ह्ह्हह्ह दोनों रचनाएं बहुत कुछ कहतीं हैं |


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  2. वाह लाजवाब सृजन जय माँ शारदे========

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  3. वाह्ह सुन्दर रचना आदरणीय ......

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