उनकी याद में
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साथ चलते -- चलते क्यूँ फासले हो गये
पास रहते -- रहते क्यूँ हादसे हो गये
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एक आँधी चली के अलग काफले हो गए
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आँखों में बसती थी फूलों की एक बगिया
अब तो इस भवरे को इतराए ज़माने हो गए
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रुत बदली और बदला गया मिजाज़ मौसम का
अब तो तारों के गाँव में धूप से उजाले हो गए
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सुनाती थी उनकी साँसें एक सरगम
क्या कहें के सुर और साज बेगाने हो गए
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न गुनाह मेरा था न ही उसका था कोई
न जाने क्या हुआ के खफ़ा बुतखाने हो गए
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दिल रोता है आज भी महबूब की याद में
मत पूछो अब किस्सा, ये जख्म पुराने हो गए
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रामकिशोर उपाध्याय
ReplyDeleteजी नमस्ते ,
आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा आज गुरुवार (११-०५-२०२३) को 'माँ क्या गई के घर से परिंदे चले गए'(अंक- ४६६२) पर भी होगी।
आप भी सादर आमंत्रित है।
सादर
सराहना के लिए हार्दिक आभार
Deleteथा एक वादा फलक तक साथ चलने का
ReplyDeleteएक आँधी चली के अलग काफले हो गए
वाह!!!
सराहना के लिए हार्दिक आभार
Deleteबहुत सुंदर गज़ल।
ReplyDeleteजी नमस्ते,
आपकी लिखी रचना शुक्रवार १२ मई २०२३ के लिए साझा की गयी है
पांच लिंकों का आनंद पर...
आप भी सादर आमंत्रित हैं।
सादर
धन्यवाद।
सराहना के लिए हार्दिक आभार
Deleteबहुत सुंदर उम्दा ग़ज़ल।
ReplyDeleteसराहना के लिए हार्दिक आभार
Deleteशानदार
ReplyDeleteसराहना के लिए हार्दिक आभार
Deleteबहुत सुंदर
ReplyDeleteसराहना के लिए हार्दिक आभार
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