Saturday, 12 January 2013

मैं स्त्री हूँ




जब मैं नहीं देखती तुम्हे 
तुम  कोशिश करते हो  कि मैं तुम्हे देखू ,
क्यूंकि मैं स्त्री हूँ --

जब मैं नहीं मुस्कराती 
तुम चाहते हो कि मैं खिलखिलाकर  हंस पडू
क्यूंकि मैं स्त्री हूँ ---

जब स्पर्श तक तुम्हारा  मैं नहीं चाहती     
तुम चाहते हो कि मैं तुम्हारी सेज पर बिछ जाऊ  
क्यूंकि मैं स्त्री हूँ ---

जब योग्य ही मैं नहीं समझती 
कि प्रेम करू तुम्हे और करूँ सर्वस्व अर्पण 
तभी तो मैं तुम्हे दुत्कार देती हूँ 
क्यूंकि तुम नहीं पाते रिझा मुझे 
तब तुम बल से छीन  लेना चाहते हो
समझकर निर्बल कर देते हो मेरा शरीर क्षत-विक्षत 
क्यूंकि मैं स्त्री हूँ-

मैं जब चाहती हूँ, तभी मुस्कराती हूँ 
जिसे  मेरे नेत्र और आत्मा स्वीकार करे 
तभी मैं उस ओर   देखती हूँ 
जो मुझे लगे कि हैं उपयुक्त 
तभी करती हूँ मैं समर्पण 
वही करती हैं मैं रमण
जीवन पर्यन्त  
क्यूंकि मैं स्त्री हूँ-

तू ,यह जान ले पुरुष ! 
अब मैं शरीर पर वार को  नहीं समझती 
कि मेरी अस्मत चली गयी
बस एक राह  चलते दुर्घटना हुई  
अपराधी तुम ही रहे,  
मेरी आत्मा तो निष्कलंक ही रही
इसके बाद भी-
मैं तो जननी , जगत्जननी  हूँ और  रहुंगी  
दुर्गा , शिवा और लक्ष्मी थी, हूँ और रहूंगी 
अब मैं नहीं हूँ  अतीत की अबला नारी
छुआ मुझे तो  समझले आयी हैं मिटने की तेरी बारी 
क्यूंकि मैं स्त्री हूँ-

2 comments:

  1. मैं तो जननी , जगत्जननी हूँ और रहुंगी
    दुर्गा , शिवा और लक्ष्मी थी, हूँ और रहूंगी
    अब मैं नहीं हूँ अतीत की अबला नारी
    छुआ मुझे तो समझले आयी हैं मिटने की तेरी बारी
    क्यूंकि मैं स्त्री हूँ......
    अच्छी रचना !!

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