Saturday, 13 October 2012

कहीं ये उसका दिल तो नहीं था।




वो बैठ गया मेरे कदमों में
रहा कुरेदता जमीन
अपने नाखून से
देखता रहा वो मेरी आँखों में
पूछता रहा वो मूक बनकर
कई सवाल बार बार
दिल उसका उछल उछल कर
मेरे कानों में घंटिया बजाता रहा
मैं अनजान सी प्रस्तर बनी
सामने की झील में कंकड़ फैंकती रही
शांत जल में लहरे बनती रही
और किनारे को छूती रही
लक्ष्य को पाने के लिए .
वो उठा और झील में कूद गया
चौंक कर देखा तो मेरे कदमों के पास
मांस  के कई टुकड़े पड़े थे
कहीं ये  उसका दिल तो नहीं  था।

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