हर सुबह उठकर निहारा
घने पेड़ , फूल , पत्तियां , और कलियाँ
और निहारा उसे , कहा जिसे अनुपम कृति
रसास्वादन किया
हर रस का -
आनंद के और विक्षोभ के भी
भोग डाला
हर एक भोग्य अनंत क्षण को
हर एक भोग्य जीवंत कण को
निकट पहुछे सम्पूर्णता के फिर भी
क्षण -क्षण बदलती
सांसारिकता का न छोड़ा पल्लू
होती रही समाहित सुन्दर अभिव्यक्तियाँ
मेरे मन आंचल में
फिर कैसे कहूँ मैं आज प्रभु-
कि जस की तस धर दीनी चदरिया
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