सांझ के धुंधलके में कुछ साफ नहीं दिखाई देता और वस्तुओं को ठीक -ठीक देखने के लिये आदमी या तो आंखों को मलता है या फिर ऐनक को ऊपर नीच करता है या बार- बार उसके लेंस साफ करता है।विज्ञान के अनुसार यह प्रकाश की अल्पता के कारण होता है। वस्तुएं तो अंधेरा हो या उजाला हो, एक जैसी ही रहती हैं । ठीक वैसा ही आलम ज़िंदगी की शाम का भी होता है और यह धुंधलका उस समय और गहराने लगता है जब आपका साथ आपका ही जीवन- साथी छोड़ जाए।
जैसे वृक्ष की लम्बी तगड़ी जड़ें उसे मरने नहीं देती, वैसे ही आदमी के जीवन का प्रकाश उसका परिवार होता है जो उसे संध्या बेला में जीने का सहारा दे भी सकता है और छीन भी सकता है। मनुष्य को एक जीवन उसके विचार भी देते हैं । वृक्ष की नियति तो स्थावर बने रहने की है,लेकिन मनुष्य की नियति तो जंगम है। उसे तो नदी की तरह प्रवाहमान रहना है। जब वृक्ष अपनी जड़ों की लंबाई बढ़ाकर जल-प्रवाह को तलाश लेते हैं और अपनी जाइलेम और फ्लोएम को साल दर साल जिंदा रखते हैं तो मनुष्य भी क्यों न अपने विचारों को विस्तारित करके जीने के लिये आवश्यक पोषण प्राप्त करे ? यह अधिकांश लोगों के साथ होता है कि विभिन्न स्पष्ट या अस्पष्ट कारणों से परिवार अक्सर सांध्य बेला में साथ छोड़ देता है ,तब आपके विचार और सोच ही जीने का हौसला देते हैं। वर्तमान परिस्थितियों का मुकाबला उनके प्रति दृष्टिकोण को बदलकर और नकारात्मकता को हटाकर ही किया जा सकता है। वैसे बूढ़े वृक्ष पर तो न तो परिन्दें बैठते हैं और फल- फूल न आने की वजह से न मधुमक्खियां आती हैं और न ही भँवरे डोलते हैं और न ही तितलियां उस पर मंडराती हैं। यह प्रकृति का नियम है।अतः इस सत्य को स्वीकारते हुए कि सुबह के बाद शाम तो आनी ही है, चिंता छोड़कर चिन्तनशील बने रहें ।
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रामकिशोर उपाध्याय
आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल बुधवार (03-08-2022) को "नागपञ्चमी आज भी, श्रद्धा का आधार" (चर्चा अंक-4510) पर भी होगी।
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चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट अक्सर नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
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डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'