Monday, 11 April 2016

रेत के टीले =======


सरसराती पवन
चीर जाती बदन.......... 
पलटकर हवा से पूछता हूँ
किस धर्म से वो आई
कभी दाढ़ी रखी या चोटी बचाई
नदी तो थी नहीं तो उससे भी पूछता
कौन मजहब है जो तेरा रास्ता टटोलता
दिखाई दे रहे थे बस रेत के टीले
किनारे जिनके बन गए थे सजीले
मगर थे नहीं गुमसुम
कण कण दे रहे थे संगीत अनुपम
धर दिए मैंने कान और मूंद लिए नयन
सरसराती पवन
चीर जाती बदन .........................
जब रेत के इन टीलों से गुजरा मेरा कारवां
बड़े होने लगे अचानक कुछ लार्वा
उबल उबल कर आलू हो गया सारा जिस्म
निकलती रही होठों से सवालों की कई किस्म
जब गर्म हवा छू गयी उर्मियाँ तो सिक गया ज़हन
जो अभी नहीं पड़ा किसी के यहाँ रहन
लोग मुझसे मजहब पूछते
और अपना कहते
लोग मेरी जाति पूछते
और अपना समझने का भ्रम पालते
मिटटी से निकला मिटटी का कमाल
निकली हवा तो मिटा बबाल
फिर भी कैसा है यह चलन .......
सरसराती पवन
चीर जाती बदन ................
बगल से गुज़र रहे थे कई ऊंट
जो पी रहे थे जमजम घूंट- घूंट
अभी वो रेत पर चल रहे थे
पहाड़ को नहीं देख रहे थे
वो हर टीले को तोड़ देना चाहते थे
बदगुमानी में पाँव से जमीं को फोड़ देना चाहते थे
उन्हें नहीं था कुछ अंदाजा
कि वो हैं बस रेत के राजा
पानी में मोटर बोट
सड़क पर बैल की जोट
चलती है तो पूरा होता है सफ़र
सच कहना मगर आज होता है कुफर
आकाश में अब रोज खिलता है इंसानियत का सुमन
जो ढूंढता है जमीन पर अपनी जड़ें और ख्यालों में वतन .......
सरसराती पवन
चीर जाती बदन .............
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रामकिशोर उपाध्याय

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