Thursday, 7 February 2013

स्याह दिन










जब से दिन स्याह होने शुरू हुए हैं'
हमें  अमावस बहुत भाने लगी हैं।

जब से  कसमों को  झुठला  रहे हैं,
हमें  वफाई बहुत  सताने लगी हैं।

जब  से  अश्कों के  झरने बह रहे हैं,
हमें गहराई बहुत  बुलाने लगी है। 

जब से बंदगी में हाथ नहीं उठ रहे  हैं,
हमें रुसवाई बहुत रिझाने लगी हैं।

जब वे  ख़त लिखना बंद कर रहे हैं,
हमें रोशनाई बहुत रुलाने लगी हैं। 












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