Monday, 3 December 2012

साहिल का नज़ारा




साहिल पे  मैं बस, मौजों का नज़ारा देखता हूँ,
वो  जाती बार बार, मैं  पैरों के निशां देखता हूँ। 

अक्सर  कश्ती को उलझते लहरों से देखता हूँ,
बैचैनी से नाखुदा  में,   बस खुदा को देखता हूँ।

सीप, घोंगे और कौड़ियाँ , दम तोड़ते देखता हूँ,
ख़ुशी से लपकते, ब्योपरियों को बस देखता हूँ।

फिर जाल को व्हेल से कटते हुए बस  देखता हूँ,
और मछुवारे के घर पसरे सन्नाटे को देखता हूँ।

बहुत दूर से  सूरज को बस ढलते हुए देखता हूँ 
आगोश में लेते आग,मैं समुन्दर  को देखता हूँ।

उठकर जाते हुए  घर, एक परिवार को देखता हूँ,
चांदनी को करते  इशारा, बस चाँद को देखता हूँ।

फिर बस बढ़ते हुए लहरों के शोर को  देखता हूँ ,
कल फिर मिलेंगे, कहते हुए  खुद को देखता हूँ।

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