बामुश्किल चल पाए थे चार कदम साथ
किस्मत की लहरों ने मिटाया हाथों हाथ
करते रहे फरयाद पलभर की जिंदगी की
वो लुटाते रहे गैरों को जवानी की सौगात
जैसे जैसे बढ़ते चले काफ़िले लुटते गए
कारवां के इंतज़ार में बीत गए दिन रात
कुछ और सबब दे जाते वो हमें जीने का
ना मालूम था इतना थोडा मिलेगा साथ
हम बुतपरस्त हैं फिर तराश लेंगे मूरत
जन्नत की किसे पड़ी हैं यही रहे आबाद
Ramkishore Upadhyay
३-७-२०१३
बहुत सुन्दर प्रस्तुति...!
ReplyDeleteआपको सूचित करते हुए हर्ष हो रहा है कि आपकी इस प्रविष्टि की चर्चा आज बृहस्पतिवार (04-07-2013) को सोचने की फुर्सत किसे है ? ( चर्चा - 1296 ) में "मयंक का कोना" पर भी है!
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
आदरणीय शास्त्री जी, नमन और हार्दिक आभार
ReplyDeleteसादर,
रामकिशोर उपाध्याय