हर तरफ शोर है
धुंध में लिपटी भोर है
खाकर जमीन की कसमें
पेड़ों को हवाएं लील रही है
समंदर में उबल रही हैं
मछलियों की बस्ती
बादलों से बरस रही है
तेजाब की सूखी नदी
ध्रुव पर पेंग्विनों की
लाशों के अंबार हैं
कहने को सावन की फुंहार है
धवल चान्दनी अब जल रही है
पर सत्ता की घुड़दौड़ में
पश्चाताप नहीं,वार्तालाप नहीं
केवल प्रलाप है गहरे
या चल रहे हैं मौहरे
आमजन के वक्षस्थल पर रुपहले
कुछ तुरप के पत्ते ...नहले पर दहले
और न्याय का सूरज .....
ठंडा हो रहा है उदय होने से पहले
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रामकिशोर उपाध्याय