Wednesday, 12 December 2018

कबतक चलेगा अंधेरों का राज


कहती रहती मत सोना और उठ जा तू
ओस में भी पेड़ की कोटर को बना लेती अपनी रजाई
फिर सूरज की किरणों से करती अपने गमगीन गीले पंखों की सफाई
बच्चों की खातिर खेतों में लगती दाना चुगने
आँख मीचकर करने लगती सपने बुनने
देख -देखकर शोर करते बच्चे
सारे जग के लगते अच्छे
नहीं किसी से भेद वह करती
मुंडेर पर बैठकर शाम को वह रहती हँसती
दूर गगन में उडती रहती पर नहीं भूलती घोसला अपना
नहीं तोड़ती किसी के घर का सपना
मगर उसकी ख़ुशी न बाज को भाती
बच्चों को पीछे से वह बतलाता उनकी जाति
कहता तुम कोयल हो,तुम हो कागा
फिर कैसे बंधा तुम्हारे मध्य ये प्रीत का धागा
बच्चे अब हो रहे थे बड़े
अपने पैरों पर होने लगे थे खड़े
अब नहीं खाते वे माँ का लाया तिनका दाना
अब उड़ाने लगे है बाज का फैंका मांसाहारी स्वादिष्ट खाना
माँ देख रही थी जलता घर सुहाना
उसको डस रहा था डर अनजाना
सोने का घोसला बनाने को उकसा रहा था बनकर गिद्ध
कर रहा था अपनी सत्ता का मकसद सिद्द
पेड़ों पर सोने के पिंजरे लटक गये धीरे -धीरे
पाँव में बंध गई लोहे की जंजीरे
मुंह पर ताले और धूप को निगल गए अँधेरे
अब कलरव नहीं होता, गाते सिर्फ भक्ति गीत वे सुबह- सवेरे
मन में सन्नाटा,तन पर हावी धन कुबेर
मुनिया आती नही अब मुंडेर
देख उसे एकदिन उपवन का एक माली बोला
कैसे हो आजाद ..... यह रहस्य खोला
फिर रोना भूल गई वह मेरे बन की चिड़िया
एकदिन जरुर होगी फिर से .........उसके खुले पंखों पर दुनिया
बढ़ता है जब -जब वंचितों के संतापों का ताप
सिंहासन पर भारी पड़ने लगते हैं जन-मन -गण के अभिशाप
प्राची से सूर्य उगेगा,आखिर कबतक चलेगा अंधेरों का राज
जनता ही ले लेती है एकदिन हर नरपति के सिर से ताज
*
रामकिशोर उपाध्याय

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