Thursday 29 May 2014

Mera avyakta: बिन दैवीय मध्यस्थता ---------------------------...

Mera avyakta: बिन दैवीय मध्यस्थता
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: बिन दैवीय मध्यस्थता --------------------------- कभी -कभी आँख में कण भी अश्रु का कारण होता हैं परन्तु आँख से अश्रु जब प...
बिन दैवीय मध्यस्थता
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कभी -कभी आँख में
कण भी अश्रु का कारण होता हैं
परन्तु आँख से अश्रु
जब प्रेमजन्य पीड़ा की अभिव्यक्ति बन छलके ...
कुछ कपोल पर गिरे
और सूरज की किरणों का सानिद्ध्य पाकर  इन्द्रधनुष बन चमके .....
कुछ जमीन पर गिरे
और अवनि का संसर्ग पाकर स्थिरता को कुछ अस्थिर करके मिटटी में जा धमके .....
कुछ अवनि और अम्बर के मध्य गिरे
और ग्लोब सा बन वायुमंडल में लटके ...
जिनमे आज भी
खोया अस्तित्व
पीड़ा का मर्म  ....
अपनी आँखों में शेष अश्रुओं में खोज रहा हूँ
बिना किसी दैवीय  मध्यस्थता  के  ..........|
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रामकिशोर उपाध्याय 

Wednesday 28 May 2014

एक धागा आशा का --------------------

जगत ...... 
कभी खट्टा ,कभी मीठा 
कभी वो मुस्काई ,कभी मैं रूठा ...
कभी उर में उपजी प्रसन्नता
और उडी बनकर तितली ....
कली -कली ,फूल-फूल 
कभी काल के पंजे में फंसी जिंदगी ऐसे घूमी 
जैसे किसी हाथ में तकली ....
मगर एक धागा जरुर निकला
आशा का
सपने बुनने का .....|
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रामकिशोर उपाध्याय

Friday 23 May 2014

पत्थर .....


राह चलते चलते
अनेक पत्थर मिलते है
कहीं धूप में तपते
और चांदनी को तरसते
कहीं मूर्तिकार की महीन छेनी से कटते
और वांछित आकार न मिलने पर आंसू बहाते
कहीं नदी में तैरते
और रगड़कर शालिग्राम ने बन पाने पर विधना को कोसते 
कहीं बर्फ़ के तले जमते
और धूप को ढूंढते
कहीं सड़क में बिछते
और राजमार्ग न कहलाने पर विक्षुब्ध होते
कहीं किसी भवन की नींव में खपते
और हवा को तड़पते
कहीं ज्वालामुखी बन फटते
और पिघलते ग्लेशियर को समेटने पर पीड़ा पाते
कहीं बाँध में लग जाते
और बहती नदी को रोकने का दोषी बन टूटने को कसमसाते
सोचता हूँ
शायद मानव और पत्थर का एक शाश्वत सम्बन्ध है
वही पीड़ा ,वही उपादेयता और वही परिचय का संकट
एक गुमनाम हवेली के कंगूरों में लगा
किसी विशाल पर्वत का एक टुकड़ा पत्थर सा इन्सान
जहाँ सिर्फ़ जीवंत अभिलाषा
मूक होकर नभ को ताकती रहती है
सदियों तक ...
पर हर पत्थर का अंत ऐसा नहीं होता ...|
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रामकिशोर उपाध्याय

Tuesday 20 May 2014

एक पथ अलग सा

एक पथ अलग सा
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एक दिन
चुपचाप
भीडभाड वाला पथ छोड़कर
एक सूनी और अनजानी राह पर चल पड़ा
जहाँ न वायु का  प्रमाण था
और न जड़ चेतन का कोई विस्तार था
शून्यता ...बस और कूप जैसी शून्यता
अचानक
एक पत्थर से टकरा गया
अंतर्मन जोर से चीखा
चोट तो नहीं आई ?
नहीं ....
बस पत्थर टूट गया
और एक मूर्ति नज़र आई
कुछ- कुछ मुझसे मिलती जुलती  ....|

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रामकिशोर उपाध्याय 

संकेत

संकेत 
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न जाने क्यूँ ?

उन्मत्त पवन
मेरे अस्तित्व वृक्ष को
मूलहीन करने पे तुली है

घने बादल
मेरे शुष्क हृदयांचल को
जलमग्न करने पे तुले है

उद्दाम लहरें
मेरी निष्प्राण भावनाओं को
लील जाने पे तुली है

लपलपाती अग्नि
मेरी बर्फीली कामनाओं को
सुलगाने पे तुली है

क्या यह किसी होनी का संकेत तो नहीं है ?
सोचता हूँ आज रातभर
अपनी प्रेयसी शब्द मंजरी के सानिध्य में ....
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रामकिशोर उपाध्याय

कल्पना 

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मन की उलझन में
कुछ शब्द मिले सुलझे हुए
किसी के कर्णफूलों जैसे आलोडित ......
ह्रदय की उद्वेलित भावभूमि में
कुछ भाव मिले स्पंदित होते हुए
किसी के मनवीणा के तारों जैसे झंकृत ......
कंठ की अवरुद्ध संगीत वीथिका से
अधरों पर कुछ स्वर उपजे गाते हुए
किसी कोकिला की कूक जैसे मधुसिक्त .....
सबने मिलकर एक नवीन गीत रचा
मेरे कंठ से बाहर आने के लिए आतुर दिखे
और फिर खग बन उड़ गए .........
कुछ समय पश्चात
किसी ने
उन्हें प्रेम-सरिता के
निर्मल घाट पर
भक्तों की आरती में
सस्वर सुना ... ............................|
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रामकिशोर उपाध्याय

Wednesday 14 May 2014

कम से कम कुछ तो हूँ ! ==============


इस जग-जंगल में
कभी पत्थर बनकर
किसी धारा के मध्य लोगों को पार उतारने के लिए
उनके पाँव अपने सर पे रखना लगा .....
कभी फूल बनकर
वेणी में सजने लगा ....
कभी मंदिर में घंटा बनकर
देव को पुकारने के भक्त का साथ देने लगा  ....
कभी शजर बन कर
छाँव देने लगा ....
सभी के उपयोग में आने लगा
उनके अपने -अपने ढंग से
बनकर .....
कभी जड़
कभी जंगम
इस जग जंगल में
अगर नहीं था कुछ
तो था बस मेरे 'स्व' का अस्तित्व
किसी साधन और वस्तु से परे
एक जीवंत 'स्व'
जो हर उस चीज की कामना करता है
जो जग में निहित है ....
शायद प्रारब्धवश परिणाम यही होना था ...
फिर भी एक संतोष अवश्य है ...
कि कुछ न होने के भाव से मुक्त हूँ
और
कम से कम कुछ तो हूँ ...
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  रामकिशोर उपाध्याय

आज बुद्ध पूर्णिमा हैं ...भगवान बुद्ध को नमन ...नमन स्वरुप एक रचना ...


ले चलो बोधिवृक्ष के तले
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देखकर दुखों को 
संसार के
चला जाऊं वीरानियों में
रम जाऊं धूल में
और बन जाऊं बांबी लपेटकर दीमके शरीर पर
या फिर .....
रम जाऊं दुखों में
संसार के
और नष्ट कर दूँ दीमकों को
जो चाट रही है पूरी मानवता को
बस ले चलो ..
मुझे उस बोधिवृक्ष के तले ...
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रामकिशोर उपाध्याय

Tuesday 13 May 2014

चाँद का मिज़ाज -------------------


लहरों के शोर में
दबा जा रहा है नाखुदा के दर्द का शोर
साहिल का खामोश समर्थन
लहरों को बेख़ौफ़ बना रहा है
लडखडाती कश्ती को
वह होंसले को पतवार से खे रहा है
लड़ रहा है लड़ाई
समंदर के उस पार जाने की
उसने सुना था के लहरें
चाँद से मुहब्बत करती है
और वो इंतज़ार करने लगा
चाँद के मिज़ाज को बदलने का .....
उस गम के घने तूफ़ान में .....|
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रामकिशोर उपाध्याय

Monday 12 May 2014

सूरज के बिन धूप .....

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एक अजीब सा
स्वप्न है जीवन 
जो यथार्थ की भूमि पर
चुपके से उतरता है
स्वप्न और यथार्थ के मध्य
मैंने अपनी देह का अनुभव किया
समय के इस कालखंड में
उसने सिर्फ एक आत्मा समझा है मुझे
वह मेरी आत्मा को
देह का परिधान देना चाहती है
सूरज के बिना धूप का अस्तित्व
मात्र कोरी एक कल्पना ........
जैसे स्वयं का स्वयं को ही
ज्ञानी जानकर छलते जाना ...
जीवन के सरोकार तो देह से पूरे होते है
जैसे किसी लता को ऊपर चढ़ने के लिए
किसी दीवार या पेड़ का अवलंब
और आत्मा से तो होता है
सिर्फ परलोक गमन.........
और मैं अभी
इस नश्वर काया में जीना चाहता हूँ.....
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रामकिशोर उपाध्याय

Thursday 8 May 2014

स्मृति का दंश ....


स्मृति का दंश
आत्मा को ऐसे पीड़ित करता है
जैसे कोई कठफोड़वा
अपने स्थायी निवास हेतु
वृक्ष के तने को निरन्तर ठोकता रहता हैं
अपनी नुकीली चोंच से........
रामकिशोर उपाध्याय
कुछ शेष हैं
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रजनी जब
गहन तम से व्याकुल होने लगे
गोधूली से बचाकर रखी 
चंद किरणों से ऊषा को आलोकित कर देता हूँ ....1
पल -पल,
क्षण -क्षण जब उदासी हावी होने लगे
व्यतीत काल-खंड से सहेजकर रखी
सुखद अनुभूतियों से आल्हादित कर लेता हूँ .....2
दिन -प्रतिदिन जब
यह संसार मरघट सा शांत निर्जीव लगने लगे
जिंदगी से निकालकर रखी
जीवन्तता से पुनर्जीवित कर लेता हूँ ................3
मैं .......
और मैं ......
सिर्फ मैं ........
रामकिशोर उपाध्याय


बुरा  न मानो आज होली हैं
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बिखरे हैं
कई रंग 
आसमान से लेकर अवनि तक
नीले ,पीले ,मटमैले और आसमानी
नहीं हो रहा हैं साहस,कैसे करूँ मनमानी
मन हैं सतरंगी
कुछ फूलों का ,,
कुछ काँटों सा ,,,
फाग में चाल हुई हैं बेढंगी
हुआ बहुरंगी
गुलाल लगा जब उनके कपोल
किसने किया कलोल
किसने किससे की ठठोली हैं
प्रबल मन-भाव की रंगोली हैं
राधा और कृष्ण के प्रेम की चिरंतन बोली हैं ..
रंग जाये अनायास कोई मेरे रंग में आज
पढ़कर यह रचना बज जाए किसी के मन का साज
बुरा न मानना
भाई आज होली हैं ..
आज होली हैं ...
रामकिशोर उपाध्याय


आज होली में .....
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सपने रंग गए
जब फूलों का रंग उड़कर 
आँखों में छाया
तन रंग गया
जब पिचकारी से भीग गयी
माटी की काया
मन रंग गया
जब कानों में पड़ी प्रेम वर्णमाला ने
ह्रदय को धडकाया
उपवन रंग गया
जब बह निकली अलभ्य सुंगध ने
हर पुष्प महकाया
जग रंग गया
जब संकेत से उन्होंने
निकट बुलाया
प्रकृति रंग गयी
जब पुरुष ने निकटता को
समाप्त पाया
और
कण-कण रंग गया
जब प्रत्येक अभिव्यक्ति ने
अपना आपा खोया
आज होली में .......
रामकिशोर उपाध्याय
छोटी -छोटी कवितायेँ
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गवाक्ष से ...
आंखे हो गयी पनीली 
देख राह खड़ी सामने
लम्बी और पथरीली
यवनिका से ....
आँखों के कोने हो गए मटमैले
देख पात्रों के अभिनय में
स्वयं का यथार्थ का चित्रण करते कुछ अलबेले
किनारे से .....
विश्वास के छूट गए अवलम्ब
देख डगमगाती नाव लहरों पर
टूटता नाविक का दंभ
रामकिशोर उपाध्याय


सिम्पली बिंदास
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मैं चलती रही
डगर -डगर 
एक अनजानी सी आशा लिए
बिन सोचे अगर -मगर
कई पथ बदलते गए
कई पथिक मिलते गए
कोई सुबह तक साथ चला
और किसी ने सुखी नदी पे बादल बनकर छला
फिर भी रह गयी चिर प्यासी
ढूंढती रही उत्तर ,देखकर अनन्त उदासी
दीपशिखा अब भी प्रखर
कोई आके ले जाता हाथ तत्पर
और कह जाता
तुम अभी जिन्दा हो
आखिरी साँस तक जिन्दा रहोगे
यूहीं बिंदास !
सिम्पली बिंदास !
रामकिशोर उपाध्याय


महाकुम्भ -2014
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होने वाला हैं
एक महाकुम्भ 
जिसमे होगा नृत्य का दंभ
बयासी करोड़ श्रद्धालु और एक करोड़ पुजारी
अपने कर्तव्यों को लादे और कुछ ताने दुधारी
लग गए टेंट
हो रहे नित नए अग्रीमेंट
किसी पे आई आफत हैं
किसी को राहत है
हर कोई गंगा सा पवित्र
कोई महादेव का लिए चरित्र
कोई लिए त्रिशूल
हरने को सबके शूल
किसी की म्यान से पड़ी तलवार
हर कोई कर रहा हैं वार
कोई पिता की टोपी पहने
कोई पहने हाथ में विश्वास के गहने
कोई कहता किसान का बेटा
कोई घर बैठ कर चाय है पीता
चल रहे है जुबानी तीर
लगता हैं हरेक खींचे हैं शमशीर
इस वैतरणी की महिमा अपरम्पार
देती स्नान का अवसर पांच साल में जरुर एकबार
इस मेले में इस बार कोई मिल जाए चच्चा
फिर देने को गच्चा
श्रद्धालु हैं कंफ्यूज
जानता हैं होगा फिर उसका मिसयूज
करता है मन यह कहने को
जुल्म नही सहने को
जान ले ये खुदा नही
उसके पैगम्बर भी नही
न ही कोई अवतार
ज्यादातर खोखले ,कमजोर और बेकार
फिर दबा अपनी बुद्धि का बटन
और कर ले अपने नौकर का चयन....
रामकिशोर उपाध्याय
गुनहगार आईने
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एक बड़े से आइने के सामने
जब वो खड़ा हुआ
उसके अपने कई अक्स नजर आये 
कुछ सजीले ,कुछ पनीले
कुछ शर्मीले , कुछ नाग से जहरीले
हरेक अक्स कुछ कह रहा था
कोई जहर उगल रहा था
कोई सर झुकाए खड़ा था
और बचाव में
वो अपनी ही अदालत में खुद की गवाही दे रहा था
वो सब मुस्करा रहे थे
मानों उसकी हार पे हंस रहे थे
फैसला सुना दिया गया
उसकी सादगी को सबसे बड़ा सबूत माना गया
और उसे गुनाहगार बता दिया गया.......
रामकिशोर उपाध्याय
तितली के रंग
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तितली को
उपवन-उपवन उड़ते हुये अगर ध्यान से देखा हैं 
तो जान भी जाओगे
जिंदादिली क्या हैं .....
और कैसे होते हैं जिंदगी के रंग
पकड़ी हुयी तितली के मुक्त होने पर
बच्चे के हाथ की उँगलियों के
पोरुओं पर छूटे रंग जैसे जीवंत ...
रामकिशोर उपाध्याय
क्षितिज के लोग
---------------
जमीन से ऊपर
उठे लोग 
रेस्तरां में भर पेट खाकर
झूठन छोड़ते हुए अक्सर चाँद और सितारों की बात करते हैं ....
आसमान के नीचे
रेंगते लोग
दो जून रोटी तलाशते हुए
जीने की जद्दोजहद करते हुए अकसर दो गज जमीन को ढूंढते है .....
और इन दोनों के मध्य
ये कौन लोग हैं
और क्या ढूंढते होंगे
प्रेम,शांति,विश्वास,धर्म,या धर्म का आडम्बर या कुछ और ......
रामकिशोर उपाध्याय
Like · 
मेरा मन
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सूर्य ...
सचेत व्योम से ताकता रहा 
और मेरी इस नश्वर काया से
बूंद-बूंद बनकर टपकता रहा
अतृप्त कामनाओं के प्रति मेरे आक्रोश का लावा ....
चन्द्र.....
सुप्त नभ से निहारता रहा
और मेरे स्थूल से
ओस बनकर बरसता रहा
मेरे ही आकारहीन स्वप्नों का सरमाया ........
अवनि .....
बेबस हो देखती रही
कभी राग के
और कभी द्वेष के पीछे भागता रहा
मेरा मन मरीचिका का भरमाया ........
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रामकिशोर उपाध्याय
Like · 
कैसा है ये निज़ाम
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छोटी-बड़ी सब तूतियां
बज रही हैं कुटी से राजप्रासाद तक 
मुखमंडलों पर छाया गया है अजीब सन्नाटा
कैसा है ये नक्कारखाना ......
शस्त्र सब थक गए
हुए सब हताहत राजा से प्रजा तक
श्वेत ध्वज लहरा दिया और सेनाएं बैरकों में लौट गयी
कागजों पर रणभेरी अभी भी बज रही है
कैसा है ये युद्ध ......
श्वान सब सो गए
कपोत सब डर गए चिट्ठियां ढ़ोते -ढ़ोते
श्रृगाल मांस नोच रहे शावक का
शिकारी कर रहे है वन्यजीव संरक्षण
कैसा है ये निज़ाम .....
रामकिशोर उपाध्याय
सिके हुए स्वप्न
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हर शाम
जब भी बल्ब का स्विच दबाता हूँ 
उजाले के लिए
सूरज की धूप में सिके हुए स्वप्न
मेरी आँखों के खारे पानी में
दूर्वा की तरह हरे भरे होने लगते हैं .....
Ramkishore Upadhyay


जब ईश्वर मिले आज ....
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जब पूजा में
शीश झुका मेरा रोज की तरह 
प्रभु ने शिकायत की
न घंटी
न मंत्रोच्चार
न माला
न पुष्प
बस एक दीपक
एक अगरबत्ती
इतनी सूक्ष्म सी प्रार्थना ...
प्रभु !
नहीं चाहता हूँ
डिस्टर्ब करना आपकी एकाग्रता को
आप वैसे ही चारों ओर से उठे पूजा स्थलों के स्वरों से
कंफ्यूज कर दिए जाते हो
और इस अकिंचन के ह्रदय की वाणी
इस शोर में
दब सी जाती होगी ....
अरे वत्स !
मुझे तेरी अल्प प्रार्थना भी स्वीकार है
और तेरा निश्छल समर्पण भी ....
मैं प्रतिदिन यहाँ आता हूँ तुझे देखने
अब लाओ भोग
और मुझे दो ..
आज जिस पूजा स्थल में गया
सभी लोग गा रहे थे मस्त होकर
मुझसे बेखबर ......
तुम्हारे पास ही समय मिला
इसलिए कह दिया ....
प्रसन्न हो
मैं झट से भागा भोग के लिए !!!!!
रामकिशोर उपाध्याय
ताल का हाल
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यूँ तो ताल था भरा भरा
पर जलकुम्भियाँ थी खूब छाई
शांत नीला जल नहीं ले पाता था यौवन की अंगड़ाई 
बैठ नहीं पाते थे हंस,
देख नहीं पाता उनकी गंभीर चाल
बस यूँ ही रहता था उदास वो ताल .......
एक दिन एक बदली छाई
और बरखा गीत गा गई
अचानक ताल में बाढ़ आ गयी
समस्त जलकुम्भियों को संग बहा ले गयी
मौसम जब गया संभल
देखता कि खिला है एक कमल
दृगों को दृष्टिगत हुआ ताल पे धीमे धीमे उतरता एक मराल
बस यूँ ही दिन फिरे और खुश हुआ ताल.......
उजाला आने से पहले
कहर ही ढाए है सदा जगत में अँधेरे ने.....
बाढ़ आना था जरुरी
ये सोचा ताल पे बैठे एक शब्द चितेरे ने......

रामकिशोर उपाध्याय

न पुकारना मुझे

न पुकारना मुझे !!!---------------
क्यों ठहर कर उठते है कदम
क्यों लौटकर आता हूँ प्रतिदिन द्वार से उसके
और क्यों हर निशा के अंधकार में मुड जाता हूँ स्वयं की ओर 
फिर क्यों सुनाई देता है अनहद का शोर ....
हे पथिक !
लगता है अभी भी कुछ है शेष
जो शेष है वही तो है विशेष
तो फिर चल निकल
बस अविकल
न मुड़ फिर उस राह से
जिसे चुना था चाह से
काहे भटके जग में चहुँ ओर
तोड़ दे जग से प्रीत की डोर .....
और सुन ले सिर्फ अपने भीतर का शोर
ले जा स्वयं को अनंत को ओर....
******************
रामकिशोर उपाध्याय
प्रायश्चित
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सोचता हूँ
कि सूरज की सारी धूप इकठ्ठा करके 
अपने घर ले आऊं
और उसमे जला डालू
ख़ुद की सारी परछाईंयों को
एक एक करके.....
रामकिशोर उपाध्याय
अहसास
====
अहसास भी
मौसम के कपडे की तरह होते हैं ...
जाड़े में
रजाई
कम्बल
कोट
या जलते अलाव की तरह
और कभी बरफ से जमते ...
बरसात में
छतरी
ओवरकोट
बरसाती
या टाट की बोरी के टुकड़े से
और कभी खूब भीगते .....
गर्मी में
ढाका की मलमल
विदेशी कॉटन
और कभी लू में पसीने से तरबतर
एयरकंडीशनर से उगलती गर्मी में जलते.....
फिर भी कुछ अहसास ऐसे भी होते है
जो न जमते,न भीगते,न जलते हैं ....
बस आखिरी कश तक पी हुयी
एक सिगरेट के टोटे की तरह से सुलगते रहते है ............|
रामकिशोर उपाध्याय
१०.४.२०
तीन सौ साठ अंश का कोण ..
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सन्नाटे को चीरकर
एक आवाज पीछे से आई 
कौन ............
मुड़कर देखा तो
कोई नहीं था
वह था मेरा मौन .....
अब प्रश्न किया मैंने
कौन सा मौन ....
उत्तर मिला
जहाँ जगत के समस्त सन्नाटे भी
हो जाते है गौण...
क्यों प्रश्न करता है बारम्बार
तू जानता है तू है कौन ......
बस उसी पल बाहर का मौन
अन्दर की ओर मुडकर
हो गया तीन सौ साठ अंश का कोण ....|
रामकिशोर उपाध्याय
नया खुदा
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आज मंदिरों में सब बुत पुराने हो गए है
मान्यताओं के जैसे
पर लाइन लम्बी होती ही जाती है
मंदिरों की सीढ़ियों पर
भगवान शिव,हनुमान ,दुर्गा या विष्णु के मंदिर में नहीं
लोग सत्ता के पूजागृह में खड़े है
आज के देवता
मुझे मांगने पर वर भी नहीं देते
पूरा चढ़ावा खाकर
लोग कहते हैं आस्था में कमी होगी
भई वेतन का दस प्रतिशत देता हूँ
सिक्के भी सफ़ेद रंग के
देश की टकसाल में ढले
अब सोचता हूँ कि बुद्ध के मार्ग पर चले
ऐश्वर्य सत्ता और दैविक सत्ता के मध्य के मार्ग पर
और फिर एक पत्थर तराश ले
और वर्तमान से भिन्न एक नया खुदा गढ़ ले
सोने चांदी मिश्रित फलों से भोग लगाकर
आज प्रथम पूजा का शुभारम्भ करे
अपने नए खुदा के पहले बुत की ........
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रामकिशोर उपाध्याय