Wednesday 30 November 2011

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Monday 28 November 2011

थोड़ी सी जिन्दगानी दे दो.

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अँधेरा ही अँधेरा चारो तरफ,
गहरी लम्बी सुरंग के जाना हैं उसपार
उजाले तो तुमने छीन ही लिए हैं,
आशाओं के दीप तो जला लूँ,
                        तुम मुझे बस थोड़ी सी रौशनी दे दो.

खत्म न होने वाला ये कैसा सफ़र हैं,
लोग चलते साथ,पर हमसफ़र नहीं बनते,
'आई लव यू ' ने  चैन छीन ही लिया हैं ,
अब मंजिल की तरफ कदम बढ़ा ही लूँ,
                                       तुम मुझे बस थोड़ी सी रवानी  दे दो.
कैसा है यह प्रेम,लुट जाने को मन करता हैं,
ख्वाहिशों है क़ि मरती ही नहीं ,
हर दिन जवान होती ही जाती है,
छोटी सी किश्ती से सागर पार जाना चाहता हूँ,
                                       तुम मुझे बस थोड़ी सी जवानी  दे दो. 


घूमते वक्त के पहियों से बंधा 'मैं',
मन की पीड़ा सहेजता चला जा रहा हूँ,
प्रेम को तो पथ में ही लूट लिया है,
थोड़ी सी मन की जिंदगी जी लूं,
                                      तुम मुझे बस थोड़ी सी ज़िन्दगानी  दे दो.

Sunday 27 November 2011

प्रेम में अक्सर


ह्रदय जब टूटता हैं तो
आइने   की तरह बिखरता नहीं
ग्लेशियर  पर बर्फ की तरह जम जाता हैं.

साथ जीने के वादे
गठबंधन की तरह  मजबूत नहीं होते
कस्तूरी की तरह नाभि में कैद होकर रह जाते   है.

स्मृति    के बीज
बगीचे में  फलदार वृक्ष नहीं बनते
केक्टस की तरह उग आत्मा में चुभते रहते  है.

नवजीवन की कल्पनाएँ
दिवास्वप्न की तरह सुन्दर नहीं होती
यथार्थ की शिलाएं बन स्पंदनहीन हो जाती है.


अन्तरंग क्षणों की कसमें
सेमर के फूल की तरह उड़ती नहीं
विवाह- मंडप की अग्नि में होम हो जाती  है.


रामकिशोर उपाध्याय
२७.११.२०११
वाराणसी,उ.प्र.

Saturday 26 November 2011

'स्त्री '

स्त्री 
तुम नदी हो 
गिरि चरणों का कर प्रक्षालन 
लिए मिलन की चाह  जाती सागर ओर   
बहती  रहती अविरल 
कभी तोड़ती कूल किनारे  
कभी अनुशासन सीमा में बंधती चल 
झरनों को पास बुलाती 
और करती कलकल निनाद
पी जाती पीड़ा जन्मों की 
तुम करती नहीं विषाद 
उत्कर्ष के  तरल को भी
ले  सहेज अपने अंक में 
तुम  लौटा   देती जीवन अविकल --
तुम धरा हो समृद्ध
जो होती नहीं कभी  वृद्ध 
वक्षस्थल पर चलते हल 
करते नहीं तुम्हे क्लांत
जन्म देने   का     सुखकर अनुभव
तुम रहती  विश्रांत
जीवन-बीजो को स्पंदन देकर
तुम रचती जाती प्रकृति अनंत -
Love Image
स्त्री !
तुम नदी हो ?
तुम धरा हो ?
या फिर शिव की शिवा हो ?
नहीं है मेरे प्रश्नों का अंत--


तुम प्राण हो 
प्राण प्रिय हो
माँ हो
भगिनी हो 
प्यारी सी बेटी हो 
तुम वो सुरभि हो 
जो फैली हैं दिगंत--  


 ' रामकिशोर उपाध्याय  '

Thursday 24 November 2011

तू ये जीवन फूलों से उधार ले,




धैर्य की शक्ति के साथ
शौर्य की भक्ति के साथ
गर्व की मुस्कान के साथ
तू अब  संकल्प  मन में धार  ले,
स्वप्न प्रिय  को धरा पे उतार ले.

आएँगी कई अभी आंधियां भी राह में
उठेंगे कई जलजले कभी यहाँ चाह में
दृढ़ता की पहचान के साथ
तू किश्ती भंवर से अब उबार ले,
स्वप्न प्रिय  को धरा पे उतार ले.

हंसेगे लोग कई हर किसी बात पे
बिछायेंगे लोग तुझे हर बिसात पे
युद्ध  विजय -अभियान  के साथ
तू हार को मन से अब बिसार दे,
स्वप्न प्रिय  को धरा पे उतार ले.

मत रुक, बस सिर्फ चलता चल
पग से राह के कांटे हटाता चल
गंध मादक की उडान के साथ
तू ये  जीवन फूलोंसे उधार ले ,
स्वप्न प्रिय  को धरा पे उतार ले.

Friday 18 November 2011


'खुद का जिबह'


सुख असीम
दुःख अनंत
सिर्फ मनस्तिथि
पर
सुख के निर्विघ्न क्षणों में
मन के  रथ के घोड़े जब निरकुंश   हो
पंक में सरपट दोड़े तो
विवेक के खड़क से
खुद को
जिबह  करने दौड़ पड़ता हूँ.

जीवित संशय

कौन है
हम
सागर से सिमटकर कूप बनते
विद्वता से घटकर मूढ़ बनते
परन्तु चंद सिक्को की अल्पता से अधिकता को समर्पित
निरजीव  संदर्भो में उलझे
उर्ध्वगमन के भ्रम को  पालते
जीवंत के प्रति  उदासीन
थमे हुए ज्ञान के उत्तराधिकारी
हम---
जीवित संशय हैं
सिद्ध नहीं.





Wednesday 16 November 2011

' तुम आ ही जाते हो'

मन पुलकित की बयार हो
या फिर भावनाओं  का ज्वार हो
तुम आ हो जाते  हो
कभी आँखों  की चौखट पर
कभी आलिंगन की चाहत पर

उदास ह्रदय  देख लगता है
कि  इर्दगिर्द अथाह समुन्द्र है
किश्ती लिए खडा  हूँ , पर तूफान बढ़ने ही नहीं देता
तुम फिर भी आ ही जाते हो
कभी माझी बनकर
कभी पतवार बनकर

जब डूबता है सूर्य
रजनी को दुल्हन बनाकर फैल जाती है  लालिमा
चादर सी , खुद बिछड़ प्रिय से
तुम आ ही जाते हो
कभी फूल बनकर
कभी सेज बनकर

पवन के झोंके जब तेज आते
कलि से रूठ कर अलि चले जाते
और  गीत गुनगुनाना  छोड़ जाते
तुम आ ही  जाते
कभी गान  बनकर
कभी तान बनकर

चेतना पर जड़ता छा जाती
तन-बंधन ढीले पड़ जाते
भ्रम का धुंध घेरने लगता
तुम आ ही जाते हो
कभी आस्था बनकर
कभी विश्वास बनकर

अनुभूति का यह कैसा  स्पर्श हैं
जहाँ स्थूल नहीं स्थूलेतर हैं
सुक्ष्म भी   हैं कहाँ, यह काल जानता है
'स्व'  जाने किधर है, बस समाधि सी लगी है                         
तुम आ ही जाते हो
कभी  श्वास    बनकर
कभी   सुवास   बनकर



'मेरे मशहूर होने तक'

मेरा यह एक प्रयास मात्र हैं. सुधिजन , कृपया इसे ठीक कर मार्गदर्शन करे.

'मेरे   मशहूर होने तक'

बुझ  जाने  दो शम्मा को  अब सहर होने तक
काफी है उजाले यादो के दफ़न  होने तक.

 या रब  शब और सहर में फासले क्यूँ है.
आते हैं  कई सैलाब आखों के बस कोने  तक.

मिटटी के घरोंदे के मानिंद मेंरे  कुछ ख्याब
टूट जाते है अक्सर  तेरे करीब आने तक

सोच का सिलसिला बादस्तूर रहा तन्हाई में
सूरत भी  बदलती गयी  मेरे परेशां होने तक

नहीं  है गिला  मेरी गुमनाम पहचान  पर अब
नज़रे बदलती रही तेरी  मेरे   मशहूर होने तक.

१६.११.२०११

Tuesday 15 November 2011

'जीवन , नभ से पवन के बीच'




नभ 
जब क्रोधित होता है तो
मेघ  बन कर सूर्य पर छा जाता है
उग्र प्रेमिका की  तरह
सूर्य के अनुनय विनय पर
झम-झम कर बरस जाता है
प्रेम में उन्मत्त रमणी की तरह--


सागर 
जब उद्विग्न होता है तो
ज्वार बन  तट तोड़कर धरा पर फैल  जाता  है
पिता के आक्रोश की तरह---
जब धरा से प्रेम करता है तो
 भाटा   बनकर पहलु में सिमटकर शांत हो जाता है
आसक्त प्रेमी की तरह--
जब उदार होता है तो
सभी नदियों का जल समेत लेता है
परिवार के मुखिया की तरह--


पवन
जब निराश होती है तो
आंधिया  बन बनों को भी धरा पर लिटा देती है
असंतुष्ट पत्नी की तरह--
जब विनम्र होती है तो
मलयज बन शीतलता का संचारकर देती है
सहृदय बहन की तरह--
जब करुणामयी होती है तो
जेठ की दुपहरी में भी मद्धम मद्धम बहती है
प्यारी माँ की तरह--














Wednesday 9 November 2011

एक ग़ज़ल कुछ यूँ ही 

कसमें  उठाते हैं कि  हर घर हो रोशन
दिए अपने  ही  घर उठा लाते हैं लोग

चिलचिलाती धूप में दम तोडती जिंदगी
ठंडी छाँव को घर में छिपा लेते  हैं लोग

जीने के सबक आज मिलते ही हैं कहाँ
मौत  बेचते फिरते हैं सफ़ेद पोश लोग

मंजिल हरेक को मयस्सर हो ही कहाँ
अब राहों को अक्सर घुमा देते हैं लोग

जिद है कि मंजिल पर पहुंचेगे  जरुर 
मुखालफ़त करते फिरते हैं कुछ लोग.





   
.



Friday 4 November 2011

मेरा ही मन.



                                                              

                                                               मेरा ही मन.

सूर्य  सचेत व्योम से ताकता रहा
चन्द्र सुप्त नभ से निहारता रहा 
मेरा  ही स्वप्न .

कभी कामना से , कभी भावना से 
शूल बन  मेरी देह को कीलता रहा
मेरा  ही  रोम .

काया  से बूंद-बूंद टपकाता रहा
सांसों  से भांप बना उडाता  रहा
मेरा  ही आक्रोश.

कभी  कल्पना बन  दौड़ता रहा
कभी   यथार्थ बन कुढ़ता रहा
मेरा ही मन.

४-११-२०११

Thursday 3 November 2011

'जब अपने बेटे को देखता हूँ. '



'जब अपने बेटे  को देखता हूँ. '
 
हरे-भरे पत्ते को छूना 
वृक्ष की डाली  पर झूलना
दौड़कर  बाग़ में तितलिया पकड़ना 
तब याद आता  हैं मौसम  सुहाना  .

गायों का तेजी से घर को भागना
बछड़ों  का थनों को मुंह  मारना
माँ का दुहते हुआ दूध की धार फैंकना
देर से स्कूल से आने पर
माँ का सड़क पर टिकटिकी लगाकर देखना
बचा हुआ खाना देखकर
माँ का प्यार से पकडना
तब याद आता  हैं  माँ का प्यारा जमाना  .

देर तक खेलना
रूठ कर मानजाना
चुपके से बहन की पेन्सिल छुपाना
पिताजी की पिटाई खाकर
माँ की गोद में छिपजाना  
तब   याद आता  हैं बेखौफ   बचपना  

दोस्तों को बिना बात छेड़ना
अपनी किताबे दूसरे बस्ते में रखना
खाने के डिब्बे से चुराकर खा लेना
झूठ-मूठ की जिद करना
मास्टरजी का बैंत खाना
तब याद आता हैं शरारती याराना .   


  
   




Tuesday 1 November 2011

'कौन हो तुम '



दूत -
खुशहाली के 
पर बाणों को  
झेलने से पहले ही लहूलुहान हो उठे हो तुम.

मसीहा-
मानवता के 
पर सलीब को
खुद के काँधे पर ढ़ोने से घबरा उठे तुम .

सिपहसलार -
वतन और कौम की रहनुमाई करने  वाले 
पर खुद को 
जिबह करने से कतरा उठे हो तुम.

सिर्फ शोर हो तुम-
जो हमारी गफलतो से पैदा हुआ.
या फिर महज एक सन्नाटा-
जो हमारी खामोशियों से गहराया.

अँधेरे में साये की तरह 
कौन हो तुम?
कौन हो तुम?