Saturday, 26 November 2011

'स्त्री '

स्त्री 
तुम नदी हो 
गिरि चरणों का कर प्रक्षालन 
लिए मिलन की चाह  जाती सागर ओर   
बहती  रहती अविरल 
कभी तोड़ती कूल किनारे  
कभी अनुशासन सीमा में बंधती चल 
झरनों को पास बुलाती 
और करती कलकल निनाद
पी जाती पीड़ा जन्मों की 
तुम करती नहीं विषाद 
उत्कर्ष के  तरल को भी
ले  सहेज अपने अंक में 
तुम  लौटा   देती जीवन अविकल --
तुम धरा हो समृद्ध
जो होती नहीं कभी  वृद्ध 
वक्षस्थल पर चलते हल 
करते नहीं तुम्हे क्लांत
जन्म देने   का     सुखकर अनुभव
तुम रहती  विश्रांत
जीवन-बीजो को स्पंदन देकर
तुम रचती जाती प्रकृति अनंत -
Love Image
स्त्री !
तुम नदी हो ?
तुम धरा हो ?
या फिर शिव की शिवा हो ?
नहीं है मेरे प्रश्नों का अंत--


तुम प्राण हो 
प्राण प्रिय हो
माँ हो
भगिनी हो 
प्यारी सी बेटी हो 
तुम वो सुरभि हो 
जो फैली हैं दिगंत--  


 ' रामकिशोर उपाध्याय  '

2 comments:

  1. वाह लाजवाब सृजन जय माँ शारदे========

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  2. वाह लाजवाब सृजन जय माँ शारदे========

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