Wednesday, 9 November 2011

एक ग़ज़ल कुछ यूँ ही 

कसमें  उठाते हैं कि  हर घर हो रोशन
दिए अपने  ही  घर उठा लाते हैं लोग

चिलचिलाती धूप में दम तोडती जिंदगी
ठंडी छाँव को घर में छिपा लेते  हैं लोग

जीने के सबक आज मिलते ही हैं कहाँ
मौत  बेचते फिरते हैं सफ़ेद पोश लोग

मंजिल हरेक को मयस्सर हो ही कहाँ
अब राहों को अक्सर घुमा देते हैं लोग

जिद है कि मंजिल पर पहुंचेगे  जरुर 
मुखालफ़त करते फिरते हैं कुछ लोग.





   
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1 comment:

  1. वाह लाजवाब सृजन जय माँ शारदे========

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