मन पुलकित की बयार हो
या फिर भावनाओं का ज्वार हो
तुम आ हो जाते हो
कभी आँखों की चौखट पर
कभी आलिंगन की चाहत पर
उदास ह्रदय देख लगता है
कि इर्दगिर्द अथाह समुन्द्र है
किश्ती लिए खडा हूँ , पर तूफान बढ़ने ही नहीं देता
तुम फिर भी आ ही जाते हो
कभी माझी बनकर
कभी पतवार बनकर
जब डूबता है सूर्य
रजनी को दुल्हन बनाकर फैल जाती है लालिमा
चादर सी , खुद बिछड़ प्रिय से
तुम आ ही जाते हो
कभी फूल बनकर
कभी सेज बनकर
पवन के झोंके जब तेज आते
कलि से रूठ कर अलि चले जाते
और गीत गुनगुनाना छोड़ जाते
तुम आ ही जाते
कभी गान बनकर
कभी तान बनकर
चेतना पर जड़ता छा जाती
तन-बंधन ढीले पड़ जाते
भ्रम का धुंध घेरने लगता
तुम आ ही जाते हो
कभी आस्था बनकर
कभी विश्वास बनकर
अनुभूति का यह कैसा स्पर्श हैं
जहाँ स्थूल नहीं स्थूलेतर हैं
सुक्ष्म भी हैं कहाँ, यह काल जानता है
'स्व' जाने किधर है, बस समाधि सी लगी है
तुम आ ही जाते हो
कभी श्वास बनकर
कभी सुवास बनकर
या फिर भावनाओं का ज्वार हो
तुम आ हो जाते हो
कभी आँखों की चौखट पर
कभी आलिंगन की चाहत पर
उदास ह्रदय देख लगता है
कि इर्दगिर्द अथाह समुन्द्र है
किश्ती लिए खडा हूँ , पर तूफान बढ़ने ही नहीं देता
तुम फिर भी आ ही जाते हो
कभी माझी बनकर
कभी पतवार बनकर
जब डूबता है सूर्य
रजनी को दुल्हन बनाकर फैल जाती है लालिमा
चादर सी , खुद बिछड़ प्रिय से
तुम आ ही जाते हो
कभी फूल बनकर
कभी सेज बनकर
पवन के झोंके जब तेज आते
कलि से रूठ कर अलि चले जाते
और गीत गुनगुनाना छोड़ जाते
तुम आ ही जाते
कभी गान बनकर
कभी तान बनकर
चेतना पर जड़ता छा जाती
तन-बंधन ढीले पड़ जाते
भ्रम का धुंध घेरने लगता
तुम आ ही जाते हो
कभी आस्था बनकर
कभी विश्वास बनकर
अनुभूति का यह कैसा स्पर्श हैं
जहाँ स्थूल नहीं स्थूलेतर हैं
सुक्ष्म भी हैं कहाँ, यह काल जानता है
'स्व' जाने किधर है, बस समाधि सी लगी है
तुम आ ही जाते हो
कभी श्वास बनकर
कभी सुवास बनकर
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