Wednesday 27 February 2013

निष्काम प्रेम




ब्रह्माण्ड
अनंत असीम
असंख्य नक्षत्र , चन्द्र , ग्रह
विशाल आकाश गंगा
बहु आयामी दिशाए
सूर्य --
एक दम निष्पक्ष
रश्मियों का अविराम प्रसार
उदय से अस्त तक
एकदम अपने कार्य में व्यस्त
करता पुष्पित पल्लवित
पंकज या कैक्टस
थार का मरू
या हो घने वन का तरु
सबल या निर्बल
अचल या चंचल
देता सबको उर्जा का ,ऊष्मा का संबल
परिक्रमा कर धरा पर रखता नज़र
पर एक पुष्प की नज़र से
होता नहीं सूरज ओझल
सूर्यमुखी का विश्वास  अटल
घन -घटा में भी घूमता अविरल
निष्काम  प्रेम  में व्याकुल
प्रेमी सा विव्हल।


Sunday 24 February 2013

मै हूँ पानी !!!

















मै हूँ पानी --
पर देखा लोगो को होते- होते पानी 
पर देखा हैं बिन पानी के 
और तो और पानी उतरते हुए 
कभी -कभी तो दुश्मन भी पिला देते है पानी 
कई कोसते है पी -पीकर पानी 
अब तो लोग लड़ते है पाने को पानी 
अपना पराया जानकर 

मेरा कोई रंग नहीं
मेरा कोई रूप नहीं
जिस में डालो ढलता हूँ वही
ख्याब सा सुनहरा भी नहीं
शबाब सा लाल भी नहीं
फूलों में गुलाब भी नहीं

पर हर रंग में घुलता हूँ
माँ के दूध में मिलता हूँ
हर नदी में बहता हूँ
हर आंख में बसता हूँ
गम में टपकता हूँ
ख़ुशी में झलकता हूँ
हर झरने से दौड़ता हूँ
मैं कहां नहीं हूँ
यह जान लो -
हू जिंदगी की रवानी
हूँ मानवता के अस्तित्व की कहानी
मिनरल बोतल का पानी
नदी का पानी
झरने का पानी
नल का पानी
जो भी कहो
मै हूँ पानी --
मै हूँ पानी----

Saturday 16 February 2013

वो नहीं आया !



कई दरों पे  हमने दी दस्तक बार बार  
पर अभी तक किसी का  पैगाम नहीं आया

हर एक आने -जाने वाले को  किया आगाह 
पर अब तक  उनका  कोई सलाम नहीं आया

जुस्तजू में सूरज डूबकर  सितारे भी चमके 
पर इस दिल को  चैन ओ आराम नहीं आया

चले मीलों कई  और हुए  भी  बेशुमार छाले 
पर मंजिल का कही  नामो निशान नहीं आया

हर  शब  में दिलो-दर खोले के बैठे रहे
पर मेरा वो खुसूस मेहमान नहीं आया 

अब  किससे करे आरजू और मिन्नतें
पर वो मेरा संगदिल मेहरबान नहीं आया

लगी  इश्क की बीमारी को अब  क्या कहे
पर थी जिसकी चाहत वो  रूहे इलाज़ नहीं आया

इसआये खुशामदों और चापलुसिओं के दौर में
पर जेहन ने वो नागँवार  मिज़ाज नहीं पाया  

Thursday 14 February 2013

मेरे अपने ----



मेरे अहसास 
प्याज के छिलके जैसे
जितने अलग करो 
उतना ही रुलाते हैं---

मेरे जिस्म की गंध
कस्तूरी की तरह 
मुझे खुद से ही दूर भगाकर
वीराने में धकेलती हैं--

मेरे खयाल 
गुबार सा उठते 
बदली से उडते
जेठ की लू से मुझे ही झुलसाते 
शोर करते करते
खुली आंखों में थक कर सो जाते हैं।

वैलेंटाइन डे 2013




बसंत में धरती ने
किया नए पत्तों और फूलों से श्रंगार
पीली सरसों और खिले गुलाब हज़ार
पर गुलाब एक
और रंग बेशुमार
लाल -
प्रतीक प्रेम का
गुलाबी-
शहद से विचार का
श्वेत -
अंतःकरण की शुद्धता का
आज प्रेम -दिवस पर
कर रहा हूँ अर्पण-
एक नहीं, दो नहीं
तीनों रंगों  के गुलाब
मित्रों! कर लेना स्वीकार
मेरे प्रति अपनी भावना के अनुसार
हो सके तो कर देना व्यक्त आभार
यह अगले वर्ष  14 फरवरी तक ही नहीं
मुझे प्राप्त होगा आपका 
एक अलभ्य शाश्वत उपहार।


Tuesday 12 February 2013

सच की धूप


घने पत्तों  से
छन -छन कर
धूप हवा को चीर कर
धरती पर गिरती हैं
हरे हरे पत्ते सुखकर
तड-तड  की आवाज करने लगते
मानों गली का गुंडा  बे-वेजह पीट  कर भी
रोने नहीं दे रहा हैं
किसी भाई को
उसकी बहन को छेड़ने से रोकने  पर
हवा भी चुपचाप
कोई साँस नहीं ले रही हैं
लगता हैं वह भी गवाह नहीं बनना चाहती
उसकी बेगुनाही का
जो पिट गया बे-वजह
मौसम भी बहक गया है
सर्द हवा के बदले लू बहने लगी हैं
जंगल की सत्ता में
सन्नाटा काबिज हो गया हैं
शेर के स्थान पर बिल्लियाँ गुर्राने लगी हैं
बदलते हालत में
शायद सभी जान गये हैं
विपरीत प्रवाह में नाव को
धकेला  जा  सकता नहीं  हैं
झूठ  चाहे कितना भी
हराभरा हो
निर्भीक हो
गिरे पत्तों के समान
सच की धूप में
टूट ही जाता है, एक दिन ।

Sunday 10 February 2013

स्वागत करो हे नाथ! स्वीकार




ह्रदय-कमल कर में,
शुभभावनाओं से गुथा हार,
दर्शन पाकर धन्य हैं,
स्वागत करो हे नाथ! स्वीकार।

आनंद असीम उर में
उठती हैं हिलोरे बारम्बार
पुलकित हो उठा उपवन 
नव्पुष्पो से करा  श्रंगार,
स्वागत करो हे नाथ! स्वीकार।

वाणी का मृदुल प्रवाह
नयन द्वय से झरे स्नेह अश्रुधार
रीता हुआ घट प्रशंसा का
रुद्ध कंठ , अभिव्यक्ति लाचार,
स्वागत करो हे नाथ! स्वीकार।

नहीं उपालंभ विलम्ब का
केवल स्नेहिल मिलन -विचार
मेरा मस्तक हैं  सज्जित आसन
खुले  गेह के समस्त द्वार
स्वागत करो हे नाथ !स्वीकार।

Saturday 9 February 2013

मौन


मस्तिष्क में उठता बवंडर 
आँखों में लहराता आसुओं का समुन्दर 
अंग-प्रत्यंग में अपूर्व कोलाहल 
ह्रदय में करूण क्रंदन 
दिगदिगन्त होता  विरह में घोर रुदन
अन्तर्मन में अप्रत्याशित उद्वेलन 
धमनियों में अनियंत्रित स्पंदन 
निशब्द होना ही नहीं होता 
मौन ---------------. 

Thursday 7 February 2013

स्याह दिन










जब से दिन स्याह होने शुरू हुए हैं'
हमें  अमावस बहुत भाने लगी हैं।

जब से  कसमों को  झुठला  रहे हैं,
हमें  वफाई बहुत  सताने लगी हैं।

जब  से  अश्कों के  झरने बह रहे हैं,
हमें गहराई बहुत  बुलाने लगी है। 

जब से बंदगी में हाथ नहीं उठ रहे  हैं,
हमें रुसवाई बहुत रिझाने लगी हैं।

जब वे  ख़त लिखना बंद कर रहे हैं,
हमें रोशनाई बहुत रुलाने लगी हैं।