Tuesday, 12 February 2013

सच की धूप


घने पत्तों  से
छन -छन कर
धूप हवा को चीर कर
धरती पर गिरती हैं
हरे हरे पत्ते सुखकर
तड-तड  की आवाज करने लगते
मानों गली का गुंडा  बे-वेजह पीट  कर भी
रोने नहीं दे रहा हैं
किसी भाई को
उसकी बहन को छेड़ने से रोकने  पर
हवा भी चुपचाप
कोई साँस नहीं ले रही हैं
लगता हैं वह भी गवाह नहीं बनना चाहती
उसकी बेगुनाही का
जो पिट गया बे-वजह
मौसम भी बहक गया है
सर्द हवा के बदले लू बहने लगी हैं
जंगल की सत्ता में
सन्नाटा काबिज हो गया हैं
शेर के स्थान पर बिल्लियाँ गुर्राने लगी हैं
बदलते हालत में
शायद सभी जान गये हैं
विपरीत प्रवाह में नाव को
धकेला  जा  सकता नहीं  हैं
झूठ  चाहे कितना भी
हराभरा हो
निर्भीक हो
गिरे पत्तों के समान
सच की धूप में
टूट ही जाता है, एक दिन ।

2 comments:

  1. झूठ चाहे कितना भी
    हराभरा हो
    निर्भीक हो
    गिरे पत्तों के समान
    सच की धूप में
    टूट ही जाता है, एक दिन ।


    सुन्दर रचना !!

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