Friday 23 May 2014

पत्थर .....


राह चलते चलते
अनेक पत्थर मिलते है
कहीं धूप में तपते
और चांदनी को तरसते
कहीं मूर्तिकार की महीन छेनी से कटते
और वांछित आकार न मिलने पर आंसू बहाते
कहीं नदी में तैरते
और रगड़कर शालिग्राम ने बन पाने पर विधना को कोसते 
कहीं बर्फ़ के तले जमते
और धूप को ढूंढते
कहीं सड़क में बिछते
और राजमार्ग न कहलाने पर विक्षुब्ध होते
कहीं किसी भवन की नींव में खपते
और हवा को तड़पते
कहीं ज्वालामुखी बन फटते
और पिघलते ग्लेशियर को समेटने पर पीड़ा पाते
कहीं बाँध में लग जाते
और बहती नदी को रोकने का दोषी बन टूटने को कसमसाते
सोचता हूँ
शायद मानव और पत्थर का एक शाश्वत सम्बन्ध है
वही पीड़ा ,वही उपादेयता और वही परिचय का संकट
एक गुमनाम हवेली के कंगूरों में लगा
किसी विशाल पर्वत का एक टुकड़ा पत्थर सा इन्सान
जहाँ सिर्फ़ जीवंत अभिलाषा
मूक होकर नभ को ताकती रहती है
सदियों तक ...
पर हर पत्थर का अंत ऐसा नहीं होता ...|
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रामकिशोर उपाध्याय

1 comment:

  1. बहुत बढ़िया। पत्‍थर में भी जीवन बिखेर दिया इस कविता ने।

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