Wednesday 12 December 2018

कोई रक्कासा नहीं हैं यहाँ



आज भी कल जैसी ही है एक रात 
रोज की तरह फिर वहीं बात 
वही तकिया ...
वही दो सर ..धड़कते जिस्म
आँखों में सुरमें की सलाई नहीं ......
काजल की .उँगलियाँ घूमती है
माथे चौड़ी बिंदी ..
होंठ पर अंग्रेजी ,,ना बाबा ना ..हिंदी
फूल तो हैं मगर नहीं है खुशबू
लथपथ जिस्म से निकले पसीने की बदबू
लाओ डियो स्प्रे कर दूं ,उसने कहा
वरना सुबह कमीज से कई प्रश्न होंगे
भूले हुए मौजें हर जवाब दे देंगे ,मौजें मत भूलना
अब जाओ सुबह बिस्तर की सिलवटें ठीक कर दूंगी
अपनी पेंट ठीक से पहन लेना
एक पेग और लगाओगे ........
सिगरेट का एक कश.... धुआं धुआं ...
उड़ गई सब हया
तुम कल न आ सको तो बतला देना
मैं साहिल को बुला लूंगी
हां ,मेरा भी आना है मुश्किल
रेखा भी ,,अकेली है कल ..
जानेमन ! यह शहर का इश्क है
जिसमें है...
न जुनून
न सुकून .......
सिर्फ जिस्मों का रक्स है ...मगर नहीं है कोई रक्कासा
न वो ,,न रेखा और न ही कोई शालिनी या बिपासा
*
रामकिशोर उपाध्याय

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