Saturday 27 July 2013

मेरी कविता 


जिसे ढूंढता हूँ 
सपनों की परछाई में 

जिसे खोजता हूँ 
सागर को गहराई में 

जिसे पाता  हूँ 
दहकते पलाश की ललाई  में 

जिसे देख बहता हूँ 
कल -कल करती नदी की अंगड़ाई में 

कौन हो तुम ?
कौन हो तुम ?

कही तुम 
झर-झर बहता झरना तो नहीं 

कही तुम 
गुनगुनाता मधुप तो नहीं 

कही तुम 
अधरों पे टिकी कृष्ण की बांसुरी तो नहीं 

कही तुम 
फूल फूल कूदती तितली तो नहीं 

कही तुम 
झूम झूम गाती बयार तो नहीं 

कही तुम 
आशा के उजाले में लिपटी सुबह  तो नहीं 

कही तुम 
मंजिल से भटकी डगर तो  नहीं 

कही तुम 
ग़म में डूबी शाम तो नहीं 

कही तुम 
प्रतीक्षारत पत्नी तो नहीं 

कही तुम 
मनुहार कराती प्रेमिका तो नहीं 

मुझे तो लगता हैं  तुम सब कुछ हों 
जीवन की लय 
आदि और प्रलय
विस्तृत नभ 
अनंत सागर 
दिन-प्रतिदिन का ज्वार 
हरी भरी धरती 
बंजर और परती
अपना दर्द विस्मृत 
परहित विस्तृत 
बिना जूती
जग जंगल में भटकती 
पाने को नवत्राण  
पोषित करता स्वप्राण    
झूलती लता 
फूलती कली 
लहरों पे चल नंगे पांव 
छूता नए पुराने गाँव 
ना बहर का ख्याल 
ना नुक्ते का सवाल 
बस भाव ही मीत 
व्यक्त होता गीत 
ना याद रखता  छंद की मात्रा 
शब्दों की एक अंतहीन यात्रा
बस
शब्दों की एक अंतहीन यात्रा  

(C) रामकिशोर  उपाध्याय 

3 comments:

  1. बहुत खूब सर, जो अनंत की रचना करता, वही जानता सारे मसले, बहुत सुंदर व गहरी अर्थ युक्त पंक्तियां ।

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  2. आदरणीय मिश्र जी आपका उत्साहवर्धन के लिए आभार

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  3. छंद क्या है छंद तो बंधन है?
    हमें तो जीना श्वछंद है!
    बहुत की उत्कृष्ट पंक्तियाँ हैं। इसके लिए आपको धन्यवाद। पढकर अच्छा लगा।

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